शुक्रवार, 10 मार्च 2017

= निष्कामी पतिव्रता का अंग =(८/६१-६३)


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卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*= निष्कामी पतिव्रता का अँग ८ =* 
दादू दूजा नैन न देखिये, श्रवणहुं सुनैं न जाइ । 
जिव्हा आन न बोलिये, अँग न और सुहाइ ॥६१॥
जैसे चन्द्र के उदय होने पर चकोर चन्द्रमा को छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं देखता, वैसे ही अपने नेत्रों से सर्व देश, काल, वस्तु में परब्रह्म को ही देखें, अन्य कुछ न देखें । जैसे मृग बरवै राग को छोड़कर अन्य कुछ भी नहीं सुनता, वैसे ही परब्रह्म सँबँधी वार्ता को छोड़कर अन्य कुछ भी न सुनें और न मन को अन्य पर जाने दें । जैसे चातक पक्षी स्वाति के लिए ही पी - पी रटता है, वैसे ही परब्रह्म प्राप्ति के लिए परब्रह्म के नाम ही लें, अन्य कुछ न लें । जैसे मच्छी के शरीर को जल बिना अन्य घृत, दूध नहीं सुहाते, वैसे ही परब्रह्म को त्यागकर अन्य कुछ भी अच्छा न लगना चाहिए ।
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चरणहुं अनत न जाइये, सब उलटा माँहिं समाइ । 
उलट अपूठा आप में, दादू रहु ल्यौ लाइ ॥६२॥
चरणों से ब्रह्म प्राप्ति के साधन सत्संगादि को छोड़कर पतन के हेतु स्थानों में नहीं जाना चाहिए । इन्द्रिय, अन्त:करणादि सभी समाज सँसार को पीठ दे, अन्तर्मुख हो, भीतर स्थित आत्म स्वरूप ब्रह्म में ही लीन रहे । इस प्रकार ब्रह्म में ही वृत्ति लगाकर स्थिर रहना चाहिए । 
दादू दूजे अन्तर होत है, जनि आने मन माँहिं । 
तहं ले मन को राखिये, जहं कुछ दूजा नाँहिं ॥६३॥ 
द्वैत भाव से जीव और परमात्मा के मध्य में अन्तराल पड़ता है । इसलिए द्वैत - भाव मन में नहीं रखना चाहिए । अपने मन को निष्काम पतिव्रत द्वारा सँसार दशा से उठाकर जहां किंचित् मात्र भी द्वैत भाव नहीं रहता, उस अद्वैत ब्रह्म में ही स्थिर रखना चाहिए । 
(क्रमशः)

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