गुरुवार, 9 मार्च 2017

= ११७ =

卐 सत्यराम सा 卐
एक तत्त्व ता ऊपर इतनी, 
तीन लोक ब्रह्मंडा ।
धरती गगन पवन अरु पानी, 
सप्त द्वीप नौ खंडा ॥ 
चंद सूर चौरासी लख, दिन अरु रैणी, 
रच ले सप्त समंदा ।
सवा लाख मेरु गिरि पर्वत, अठारह भार, 
तीर्थ व्रत ता ऊपर मंडा ।
चौदह लोक रहैं सब रचना, 
दादू दास तास घर बंदा ॥ 
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साभार ~ Girdhari Agarwal

*आध्यात्मिक शिक्षाप्रद कथा*
*भगवान् नारायण की सर्वव्यापकता*

प्राचीन काल में अश्वशिरा नामक एक परम धार्मिक राजा थे | उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ के द्वारा भगवान् नारायण का यजन किया था, जिसमें बहुत बड़ी दक्षिण बाँटी गई | यज्ञ की समाप्ति पर राजा ने अवभृथ-स्नान किया| इसके पश्चात् वे ब्रह्मणों से घिरे हुए बैठे थे, उसी समय भगवान् कपिल देव वहाँ पधारे |
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उनके साथ योगीराज जैगीषव्य भी थे | उन्हें देखकर महाराज अश्वशिरा बड़ी शीघ्रता से उठे, अत्यंत हर्ष के साथ उनका सत्कार किया और तत्काल दोनों मुनियों के विधिवत् स्वागत की व्यवस्था की | जब दोनों मुनि श्रेष्ठ भलीभाँति पूजित होकर आसन पर विराजमान हो गए, तब महापराक्रमी राजा अश्वशिरा ने उनकी ओर देखकर पूछा- ‘आप दोनों अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धिवाले और योग के आचार्य हैं | आपने कृपापूर्वक स्वयं अपनी इच्छा से यहाँ आकर मुझे दर्शन दिया है | आप मनुष्यों में श्रेष्ठ ब्राह्मण देवता हैं | आप दोनों मेरे इस संशय का समाधान करे कि मैं भगवान् नारायण की आराधना कैसे करुँ?’ 
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दोनों ऋषियों ने कहा- ‘राजन ! तुम नारायण किसे कहते हो? महाराज ! हम दो नारायण तो तुम्हारे सामने प्रत्यक्ष रुप से उपस्थित है |’
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राजा अश्वशिरा बोले - ‘आप दोनों महानुभाव ब्राहमण हैं | आपको सिद्धि सुलभ हो चुकी है | तपस्या से आप के पाप भी नष्ट हो गए हैं - यह मैं मानता हूँ, किंतु ‘हम दोनों नारायण हैं’, ऐसा आप लोग कैसे कह रहे हैं? भगवान् नारायण तो देवताओं के भी देवता हैं | उनकी भुजाएँ शंख, चक्र और गदा से अलंकृत रहती है | वे पीताम्बर धारण करते हैं | गरुड़ उनका वाहन है | भला, संसार में उनकी समानता कौन कर सकता है?’

कपिल और जैगीषव्य - ये दोनों ऋषि कठोर व्रत का पालन करने वाले थे | वे राजा अश्वशिरा की बात सुनकर हँस पड़े और बोले - ‘राजन् ! तुम विष्णु का दर्शन करो |’ इस प्रकार कहकर कपिल जी उसी क्षण स्वयं विष्णु बन गए और जैगीषव्य ने गरुड़ का रुप धारण कर लिया | अब तो राजाओं के समूह में हाहाकार मच गया | गरुड़ वाहन सनातन भगवान् नारायण को देखकर महान् यशस्वी राजा अश्वशिरा हाथ जोड़कर कहने लगे - ‘विप्रवरों ! आप दोनो शांत हों | भगवान् विष्णु ऐसे नहीं हैं | जिनकी नाभि से उत्पन्न कमल पर प्रकट होकर ब्रह्मा अपने रुप से विराजते हैं, वह रूप परम प्रभु भगवान् विष्णु का है |
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कपिल और जैगीषव्य - ये दोनों मुनियों में श्रेष्ठ थे | राजा अश्वशिरा की उक्त बात सुनकर उन्होंने योग माया का विस्तार कर दिया | फिर तो कपिलदेव पदनाभ विष्णु के तथा जैगीषव्य प्रजापति ब्रह्मा के रूप में परिणत हो गये | कमल के ऊपर ब्रह्माजी सुशोभित होने लगे और उनके श्रीविग्रह से कालाग्नि के तुल्य लाल नेत्रों वाले परम तेजस्वी रुद्रका प्राकट्य हो गया | राजा ने सोचा - ‘हो-न-हो, यह इन योगीश्वरों की ही माया है; क्योंकि जगदीश्वर इस प्रकार सहज ही दृष्टिगोचर नहीं हो सकते | वे सर्वशक्ति सम्पन्न श्रीहरि तो सदा सर्वत्र विराजते हैं |’ 
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राजा अश्वशिरा अपनी सभा में इस प्रकार कह ही रहे थे कि उनकी बात समाप्त होते न होते खटमल, मच्छर, जूँ, भौंरे, पक्षी, सर्प, घोड़े, गाय, हाथी, बाघ, सिंह, श्रृगाल, हरिण एवं इनके अतिरिक्त अन्य भी करोड़ों ग्राम्य एवं वन्य-पशु राजभवन में चारों ओर दिखाई पड़ने लगे | उस झुँड-के-झुँड प्राणी समूह को देखकर राजा के आश्चर्य की सीमा न रही | वे यह विचार करने लगे कि अब मुझे क्या करना चाहिए | इतने में ही सारी बात उनकी समझ में आ गई | अहो ! यह तो परम बुद्धिमान कपिल और जैगीषव्य मुनि का ही महात्म्य है | फिर तो राजा अश्वशिरा ने हाथ जोड़कर उन ऋषियों से भक्तिपूर्वक पूछा - ‘विप्रवरों ! यह क्या प्रपंच है ?’
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कपिल और जैगीषव्य ने कहा - ‘राजन ! हम दोनों से तुम्हारा प्रश्न था कि भगवान् श्रीहरि की आराधना एवं उन्हें प्राप्त करने का क्या विधान है ?’ महाराज ! इसीलिए हम लोगों ने तुम्हें यह दृश्य दिखलाया है | राजन् ! सर्वज्ञ भगवान् श्रीहरि की यह त्रिगुणात्मक सृष्टि है, जो तुम्हें दृष्टिगोचर हुई है | भगवान् नारायण एक ही हैं | वे अपनी इच्छा के अनुसार अनेक रुप धारण करते रहते हैं | किसी काल में जब वे अपनी अनंत तेजो राशि को आत्मसात् करके सौम्यरुप में सुशोभित होते हैं, भी मनुष्यों को उनकी झाँकी प्राप्त होती है | अतैव उन नारायण की अव्यक्त रुप में अराधना सधः फलवती नहीं हो पाती | वे जगत प्रभु परमात्मा ही सब के शरीर में विराजमान हैं | भक्ति का उदय होने पर अपने शरीर में ही परमात्मा का साक्षात्कार हो सकता है | परमात्मा किसी स्थान विशेष में ही रहते हो, ऐसी बात नहीं है, वे तो सर्वव्यापक है | 
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महाराज ! इसी निमित हम दोनों के प्रभाव से तुम्हारे सामने यह दृश्य उपस्थित हुआ है | इसका प्रयोजन यह है कि ‘भगवान् की सर्वव्यापकता पर तुम्हारी आस्था दृढ़ हो जाए | राजन् ! इसी प्रकार तुम्हारे इन मंत्रियों एवं सेवकों के - सभी के शरीर में भगवान् श्रीहरि विराजमान है | राजन् ! हमने जो देवता एवं कीट-पशुओं के समूह तुम्हें अभी दिखलाये हैं, वे सब-के-सब विष्णु के ही रूप हैं | केवल अपनी भावनाओं को दृढ़ करने की आवश्यकता है; क्योंकि भगवान् श्रीहरि तो सब में व्याप्त हैं उनके समान दूसरा कोई भी नहीं है, ऐसी भावना से उन श्रीहरि की सेवा करनी चाहिए | राजन् ! इस प्रकार मैंने सच्चे ज्ञान का तुम्हारे सामने वर्णन कर दिया | 
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अब तुम अपनी परिपूर्ण भावना से भगवान् नारायण का, जो सबके परमगुरु हैं, स्मरण करो | धूप-दीप आदि पूजा की सामग्रियों से ब्रह्मणों को तथा तर्पण द्वारा पितरों को तृप्त करो | इस प्रकार ध्यान में चित को समाहित करने से भगवान् नारायण शीघ्र ही सुलभ हो जाते हैं |

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