बुधवार, 12 अप्रैल 2017

= १७७ =

卐 सत्यराम सा 卐
साधु शब्द सुख वर्षहि, शीतल होइ शरीर ।
दादू अन्तर आत्मा, पीवे हरि जल नीर ॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! मुक्त ब्रह्मवेत्ता संतों की वाणी द्वारा आत्मा आनन्द की वृष्टि होती है तथा सच्चे और शुद्ध व्यवहार की भी वृष्टि होती है । और फिर जिज्ञासुओं की बुद्धि व्यवहार में दक्ष होकर आत्म - परायण कहिए निष्काम स्मरण करके ब्रह्मानन्द में मग्न रहती है ॥ 
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जलती बलती आतमा, साधु सरोवर जाइ ।
दादू पीवै राम रस, सुख में रहै समाइ ॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संसारी अज्ञानी प्राणी, तीन ताप और भोजन - वस्त्र आदि से पीड़ित होकर संतों की सत्संगति में आते हैं । फिर वे नाम - स्मरण द्वारा उन सब दुःखों से मुक्त होकर सुख - स्वरूप परमेश्‍वर में समा जाते हैं ॥ ६६ ॥ 
दत्तात्रेय मुनि पै गयो, अलरक जलता जान । 
ताको गुरु सीतल कियो, दे दे उत्तम ज्ञान ॥ 
दृष्टान्त ~ राजा ऋतुध्वज की रानी मन्दालसा थी । उसके चार पुत्र हुए । तीन पुत्रों को उसने वैराग्य का उपदेश करके परमेश्‍वर के स्वरूप में लगा दिया । वे तीनों क्रम - क्रम से निर्जन स्थान में जाकर समाधिस्थ हो गये । उसकी प्रतिज्ञा थी कि जो मेरे गर्भ में आवेगा, उसको मैं मुक्त कर दूँगी । 
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जब चौथे पुत्र अलर्क को भी वैराग्य का उपदेश करने का विचार किया, तब राजा बोले कि इस राज को कौन संभालेगा ? अब तो अपने दोनों शास्त्र आज्ञानुसार वानप्रस्थ आश्रम को धारण करें और यह राज इसको देवें । रानी विचारशील थी । राजा के विचारों से सहमत होकर अलर्क को राजतिलक कर दिया और एक कागज में मंत्र लिखकर, जंत्र बनाकर उसकी भुजा के बांध दिया और बोली - "पुत्र ! मेरी प्रतिज्ञा है, उसको सत्य करना । 
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अपने पुत्रों को राज देकर, अपने आत्म - कल्याण के साधनों को अपनाना और कभी भारी दुःख आवे तो, इस जंत्र को खोलकर पढ़ लेना, तेरा दुःख दूर हो जायेगा ।" यह कहकर राजा और रानी जंगल में चल पड़े । आगे तीनों पुत्र जहाँ पर तप कर रहे थे, वहाँ पहुँचे । 
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माता - पिता को देखकर तीनों पुत्रों ने नमस्कार किया और बोले - "हमें क्या आज्ञा हैं ?" मन्दालसा - "अलर्क कहीं राज में फँसकर मेरी प्रतीज्ञा को झूठी न कर दे । अगर राज में फँस जाये तो आप उसे निकाल कर लाना, यही आज्ञा है ।" राजा रानी आगे चले गये । 
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इधर अलर्क राज के मोह में आसक्त हो गया । माता के उपदेश को भूल गया । तीनों भाई आये, खबर कराई कि आपके भ्राता आये हैं । अलर्क ने नमस्कार किया और कहा - "आज्ञा ।" भ्राताओं ने कहा - "माता की प्रतिज्ञा को सत्य करो, अपने पुत्रों को राज देकर हमारे साथ चलो ।" वह हँसने लगा और बोला - "तुम तो फकीर हो ही, मुझे भी फकीर बनाना चाहते हो ? चलो, किले से बाहर हो जाओ ।" 
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वे तीनों काशीराज मामा के पास गये । सेना लेकर आये और अलर्क के राज को घेर लिया । जब अलर्क ने किले के उपर चढ़ कर देखा, तो चारों तरफ सेना है । वह उदास हो गया । तब माता का उपदेश याद आया और यंत्र को खोलकर कागज निकाला । उसमें माता ने लिखा था - 
श्‍लोक -
*शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरंजनोऽसि,* 
*संसार - माया - परिवर्जितोऽसि ।*
*संसार - स्वप्नं त्यज मोह - निद्रां,*
*मंदालसा - वाक्यमुवाच पुत्राः ॥* 
हे पुत्र ! तू शुद्ध है, तू बुद्ध है, तू निरंजन है, संसार रूप माया से तू रहित है । संसार स्वप्न के समान प्रतिभासिक सत्ता वाला है । इस मोह रूपी निद्रा से आँखें खोल । यह माता मंदालसा के वचन हैं, विचार कर । 
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जब अलर्क ने इस श्‍लोक का विचार किया, तो ज्ञान हो गया और खुले सिर नंगे पांव जैसे था, वैसे ही उठकर चल पड़ा और "अहं शुद्धोऽसि, अहं बुद्धोऽसि, अहं निरंजनोऽसि"* इस प्रकार बोलते हुए को भ्राताओं ने देखा । सेना ने रास्ता दे दिया । जंगल में दत्तात्रेय महाराज से जाकर मिला । गुरुदेव ने अलर्क को आत्म - ज्ञान का उपदेश दे - देकर शीतल बना दिया । उधर उसके पुत्रों को राज देकर तीनों भ्राताओं ने माता की प्रतिज्ञा को सत्य किया ।
*(श्री दादूवाणी ~ साधू का अंग)*

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