मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

= १७५ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
आपै आप प्रकाशिया, निर्मल ज्ञान अनन्त । 
क्षीर नीर न्यारा किया, दादू भज भगवंत ॥ 
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साभार ~ जया शर्मा

*भक्त ठाकुर श्री किशनसिंह राठौड़ जी*
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राजस्थान के लोग मीराबाई जी के बाद भक्त ठाकुर श्री किशनसिंह राठौड़ जी का नाम ही सर्वाधिक श्रद्धा और भक्ति से लेते है। किशनसिंह जी भक्ति के प्रबल संस्कार लेकर सं॰ १६४७ में माघ सुदी नवमी को जन्मे थे। वे मुरलीधर के बडे भक्त थे, बड़े धर्मनिष्ठ, गो-ब्राह्मण सेवी और दानशील भी थे। प्रतिदिन ब्राह्मणों और गरीबो को भोजन कराकर स्वयं भोजन करना उनका नियम था, सम्भवतः इसी कारण बडे भाई से उनकी अनबन रहती।
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इसलिए वे गारबदेसर छोड़कर अपने ननिहाल उदयपुर(शेखावाटी) चले गये और वहाँ स्वतन्त्रतापूर्वक भजन-स्मरण में लवलीन रहते। वे मुरलीधर जी की मानसी सेवा किया करते, मानसी-सेवा करते-करते उनकी विरहाग्नि भड़क उठी। मुरलीधर के साक्षात् दर्शन की उत्कंठा इतनी तीव्र हो गयी कि दर्शन बिना उनका जीना दूभर हो गया। तब उन्होने संकल्प किया कि जब तक दर्शन न होंगे वे अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे, तीन दिन और रात बीत गये बिना अन्न-जल ग्रहण किये।
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मामा हीरसिंह और नाना-नानी ने बहुत चेष्टा की कि वे अपना संकल्प त्याग दें। शास्त्रज्ञ पण्डितों जी ने कहा :- "ये भगवद् दर्शनप्राप्त करने का उपाय नहीं है, भगवान परम स्वतंत्र हैं। भगवान हठ करने से नहीं मिलते, यदि इस प्रकार हठ करने से भगवान मिल जाये तो हर कोई प्राप्त करले उन्हें।" पर भक्त किशनसिंह जी अपने निश्चय पर दृढ़ रहे और कहा :- "आप लोग जो भी कहे, मै अब अन्न-जल तभी ग्रहण करूँगा, जब भगवान दर्शन देंगे, या तो दर्शन होंगे या मृत्यु। मृत्यु तो वैसे भी होनी है, क्योंकि मेरे लिए दर्शन किए बिना प्राण धारण करना सम्भव नहीं है। मेरे लिए दर्शन और मृत्यु दोनों ही कल्याणकारी हैं, क्योंकि दोनो दशाएँ असह्य विरह-वेदना से मुक्ति दिलाने वाली है।"
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किशनसिंह जी का हठ कोरा हठ नहीं था, उनका हठ प्रेम-हठ था। कोरे हठ से भगवान पकड में नहीं आते, पर प्रेम-हठ के आगे उन्हे हार मानकर भक्त का हठ रखना पडता है। प्रेम-रहित हठ करने वाले के आगे भगवान् प्रकट भी हो जायें तो क्या उसे दर्शन हों? भगवान के दर्शन तो प्रेम के नेत्रों से ही होते हैं, चर्म-चक्षुओ से दर्शन तो कंस, जरासन्ध, चारूण, मुष्टिक आदि ने भी किये थे, पर क्या उन्हें भगवान के यथार्थ स्वरूप के दर्शन हुए थे? 
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किशनसिह के प्रेम-हठ की भगवान को रक्षा करनी पड़ी, पर भगवान तो कौतुक-प्रिय और रसिक है न। उनकी प्रत्येक क्रिया कौतुक और रसिकता से परिपूर्ण होती है, उन्होंने किशनसिह जी को दर्शन दिये, पर छद्म वेश मे। वे आये एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर और लगे किशनसिह जी को उपदेश करने। उन्होंने भी कही वही बात और बोले :- "देखो वत्स, बन्धुच्छ-बान्धवों का कहना मान लो, भगवान् हठ करने से नहीं मिलते, तुम अन्न-जल ग्रहण करो।"
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यह सुनते-सुनते तो किशनसिंह के कान पक गये थे, उन्होने जैसे ब्राह्मण रूपी भगवान् की बात सुनी ही नहीं, न उनका कोई उत्तर दिया, न उनकी ओर प्रक्षेप ही किया। 
शेष अगले भाग में.....

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