मंगलवार, 11 अप्रैल 2017

= १७६ =

卐 सत्यराम सा 卐
साधु कंवल हरि वासना, संत भ्रमर संग आइ ।
दादू परिमल ले चले, मिले राम को जाइ ॥ 
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साभार ~ जया शर्मा

तब भगवान् ने कहा :- “देखो, मै 100 वर्ष का तपस्वी ब्राह्मण हूँ, ब्रह्मविद् हूँ इसलिए तुम मेरे दर्शन को ही भगवान् का दर्शन मानकर अपना हठ छोड दो।” इस पर भी किशनसिह जी ने भगवान् की ओर प्रक्षेप नहीं किया, वे सिर नीचा किये बैठे रहे। 
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हारकर भगवान् ने कहा :- “वत्स, मैं स्वयं भगवान् हूँ, तुम्हारा कष्ट देखकर मुझसे रहा नहीं गया इसलिए तुम्हें दर्शन देने चला आया हूँ, अब तुम मेरे दर्शन कर अन्न-जल ग्रहण करो।” 
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किशनसिंहजी ने कहा:- “यदि आप भगवान् हैं तो मैं आपको दण्डवत करता हूँ, पर मैं कैसे जानूँ कि आप सचमुच के भगवान् हैं?”
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“वत्स, भगवान् सत्यस्वरूप है, वे झूठ नहीं बोलते, इसलिए मेरी बात का विश्वास करो।” 
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“यदि आप सचमुच भगवान् है, तो मुझे यह कहने के लिए क्षमा करे कि झूठ तो आप अभी बोल चुके हैं। भागवत् पुराण साक्षी है कि आप झूठ ही अधिक बोलते हैं, सत्य कम। शास्त्र कहते हैं कि आपके लिए झूठ और सत्य दोनों समान हैं, आप सत्यस्वरूप इसलिए तो है कि आपका झूठ भी सत्य होता है।”
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भगवान् शायद भक्त से यही कहलाना चाहते थे कि वे झूठे हैं उन्हे भक्त के मुख से अपनी निन्दा सुन जितनी प्रसन्नता होती है, उतनी स्तुति सुनकर भी नहीं होती उन्होंने प्रसन्न होकर तब कहा:- “अच्छा, तो लौ मेरे साक्षात् दर्शन करो और वर माँगो।”
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उसी समय किशनसिह जी ने देखा अपनी नील और कोटि चन्द्रमा के समान सुशीलता, कमनीय छटा बिखेरते हुए प्रसन्न मुद्रा मे अपने सामने खडे मोर-मुकुट पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण। किशनसिह एकटक प्रभु की और देखते रहे उनका सारा शरीर रोमांचित और पुलकित हो गया। नेत्रों से अश्रुधारा बह चली, गद्गद् कण्ठ से अस्फुट स्वर मे “प्रभु, प्रभु” कहते हुए वे उनके चरणों मे गिर पडे।
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प्रभु ने स्नेह से उन्हें उठाते हुए वर माँगने को कहा तो किशनसिंह ने कहा:- “प्रभु वर क्या माँगू, माँगने को क्या कुछ बाकी रहा? यदि देना है तो यह वर दें कि आपके चरणों मे मेरी भक्ति बनी रहे और मैं जब भी आपका स्मरण करूँ आप इसी रूप में मुझे दर्शन दें।” 
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प्रभु ने कहा :- “तथास्तु” पर उन्हें इतने से सन्तोष कहाँ, उन्होंने एक शालिग्राम शिला देते हुए कहा:- “इसकी सेवा करना, तुम्हारी गो-ब्राह्मण और सन्तों की सेवा मे रुचि है न, उसके लिये यह शिला नित्य सवा मासा स्वर्ण उगला करेगी, जिससे तुम्हारी सेवा अबाध गति से और खुले हस्त से होती रहेगी। और देखो, तुम आज ही गारबदेसर चले जाओ और वहाँ का राज-काज संभालो।” 
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“गारबदेसर मे तो मेरा भाई बाघसिंह का राज्य है प्रभु” किशनसिंह ने आश्चर्य से कहा। प्रभु ने आश्वस्त करते हुए कहा :- “आज से चौथे दिन बाघसिंह युद्ध में मारा जायेगा, तुम्हारा राजतिलक होगा” इतना कह प्रभु अन्तर्धान हो गये। 
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किशनसिंह जी प्रभु के आदेशानुसार उसी दिन गारबदेसर के लिए चल दिये, वे मार्ग में ही थे जब बाघसिह शत्रु के हाथ से मारे गये। गारबदेसर सरदार बाघसिह के कोई पुत्र न होने के कारण उनके बाद उनके उत्तराधिकारी किशनसिहजी को लिवा लाने के लिए उदयपुर के लिए चल पडे।
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मार्ग में उनकी किशनसिंह जी की कुबिया ग्राम में भेंट हुई, उन्होंने किशनसिंह जी को जुहार पर भाई के मारे जाने का सब हाल सुनाया और नौबत-नगाडो के साथ आदरपूर्वक ले जाकर राजतिलक करवाया। गारबदेसर मे किशनसिह के गद्दी पर बैठते ही न्यायशीलता और धर्मपरायणता के एक स्वर्णिम युग का आरम्भ हुआ, प्रजा की सुख-समृद्धि का अन्त न रहा।
शेष कथा दोनों पोस्ट के चित्रों में.....

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