卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी* टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मन का अँग १०*
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*आशय - विश्राम *
स्वप्ना तब लग देखिये, जब लग चँचल होइ ।
मन निश्चल लागा नाम सौं, तब स्वप्ना नाहीं कोइ
॥९४॥
९४ - १०९ में कहते हैं - प्राणी आशा के अनुसार स्थान में ही
जाकर बसता है - जब तक मन चँचल रहता है,
तब तक स्वप्न भासता है और जब मन सुषुप्ति
में निश्चल हो जाता है, तब स्वप्न नहीं दीखता । वैसे ही जब तक मन निरंजन राम के
नाम - चिन्तन में संलग्न नहीं होता तब तक ही सँसार - स्वप्न भासता है और नाम में
स्थिर होते ही सँसार, सँसार रूप से नहीं भासता, ब्रह्म रूप से भासता
है ।
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जागत जहं जहं मन रहे,
सोवत तहं तहं जाइ ।
दादू जे जे मन बसै, सोइ सोइ देखै आइ ॥९५॥
जाग्रतावस्था में मन जिन - जिन कार्यों में संलग्न रहता है, स्वप्नावस्था
में भी प्राय: उन २ में ही जाता है । कभी - कभी ऐसे स्वप्न भी आते हैं जिनका
वर्तमान जीवन से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है किन्तु वे भी किसी पूर्व जन्म की
जाग्रतावस्था के सँस्कार से ही आते हैं । अत: जाग्रत में जो - जो मन में रहता है, वही - २
स्वप्नावस्था में आकर देखता है ।
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दादू जे जे चित बसै,
सोइ सोइ आये चीति ।
बाहर भीतर देखिये, जाही सेती प्रीति ॥९६॥
जाग्रतावस्था में जो जो चित्त में रहता है, स्वप्नावस्था
में भी वही - २ चित्त में आता है । जिसके साथ प्रेम होता है वही बाह्य
जाग्रतावस्था में और वही आन्तर स्वप्नावस्था में देखने में आता है । अत: प्रीति
भगवान् में ही रखनी चाहिए ।
(क्रमशः)
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