बुधवार, 31 मई 2017

श्री गुरूदेव का अंग ३(१७-२०)

#daduji


卐 सत्यराम सा 卐
*बच्चों के माता पिता, दूजा नाहीं कोइ ।*
*दादू निपजै भाव सूं, सतगुरु के घट होइ ॥* 
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साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**श्री गुरूदेव का अंग ३**
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फाटे परवत पाप के, गुरू दादू की हाँक ।
रज्जब निकस्या राह उस, प्राण मुक्त बेवाक१ ॥ १७ ॥
गुरू दादू जी की भक्ति ज्ञान मय उच्च आवाज से पाप रूप पर्वत फट कर मार्ग बन गया है, उसी मार्ग से निकल कर साधक प्राणी परमात्मा को प्राप्त होकर पूर्ण१ रूप से मुक्त हो जाते हैं ।
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हरि सिध्दि१ हीरा मयी, वज्र२ न बेधी जाय ।
तहाँ गुरू गैला३ किया, तब शिष्य सूत समाय ॥ १८ ॥
हरि की माया१ हीरा रूप है, जैसे हीरा२ सहज ही बेधा नहीं जाता वैसे ही माया का मन से त्याग रूप वेध सर्व साधारण से नहीं होता किंतु उसमें जब से गुरूदेव ने साधन रूप मार्ग३ बना दिया है, तब से शिष्य रूप धागा उसके बाहर निकल कर परमात्मा को प्राप्त होता है और परमात्मा में ही समा जाता है ।
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दादू दोस्त जीव का, जन रज्जब जग माँहि ।
कै१ जिन सिरजे सो सही, तीजा कोई नाँहि ॥ १९ ॥
१९-२५ में गुरु पर अपना भरोसा बता रहे हैं - मुझ शिष्य रूप जीव के सच्च मित्र जगत में दादू जी ही हैं वा१ जिनने मुझे उत्पन्न किया है वे ईश्वर हैं, तीसरा कोई भी नहीं है ।
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जन रज्जब जगदीश लग, दादू श्री गुरूदेव ।
मनसा बाचा कर्मना, तब लग माडी१ सेव ॥ २० ॥
श्री गुरुदेव दादू जी परमात्मा की उपासना में लग कर जब तक परब्रह्म को प्राप्त न हुये तब तक मन वचन कर्म से भक्ति करते१ ही रहे और ऐसा ही उपदेश हम शिष्यों को भी दिया । अत: हम उन पर ही भरोसा करते हैं ।
(क्रमशः)

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