बुधवार, 14 जून 2017

श्री गुरूदेव का अंग ३(६१-४)

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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मन माला तह फेरिये जहँ आपै एक अनन्त ।*
*सहजैं सो सतगुरु मिल्या, जुग-जुग फाग बसन्त ॥* 
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**श्री गुरूदेव का अंग ३**
साभार ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
**श्री रज्जबवाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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प्राण पिंड में सानिया१, पंच पचीसों घोलि२ ।
जन रज्जब गुरु ज्ञान बल, हरि हि मिलाये खोलि ॥६१॥
माया विशिष्ट ने आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, इन पंच तत्त्वों -

*पृथ्वी की* - अस्थि, मेद, क्षुधा, रोध, भय । 

*जल की* - त्वक, मूत्र, तृषा, भ्रमण, मोह । 
*अग्नि की* - माँस, रक्त, आलस्य, ऊर्घ्वगमन, क्रोध । 
*वायु की* - नाड़ी, शुक्र, संगम, अतिनिर्गमन, काम । 
*आकाश की* - रोम, श्लेषम, निद्रा, उच्चस्थिति, लोभ । 
तथा इनकी २५ प्रकृतियों का पंचीकरण१ बनाकर शरीर की रचना द्वारा प्राणी को इनमें मिलाकर२ इनके राग से बाँध दिया है, यही चिज्जड़ ग्रंथी है । गुरुदेव ने ही इसको अपने ज्ञान बल से खोल कर हमें परब्रह्म से मिलाया है ।

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जीव रच्या जगदीश ने, बाँध्या काया माँही ।
जन रज्जब मुक्ता किया, गुरु सम कोई नांहि ॥६२॥
ईश्वर ने जीव को उत्पन्न किया किन्तु शरीर को राग में बाँध दिया, इससे वह दुखी ही रहा । फिर गुरुदेव ने ज्ञानोपदेश द्वारा राग के मूल कारण अज्ञान को नष्ट करके राग-बन्धन से मुक्त किया है और परब्रह्म से मिलाया है । अत: इस संसार में गुरु के समान जीव का सच्चा हितैषी कोई भी नहीं है ।
अरिल - 
शक्ति सु:ख अरु शीत जमे हिम हि ज्यों ।
आतम अंड सु कूंज बंधे बपु वारि यों ॥
सद्गुरु सूरज तेज, विरह वैशाख रे ।
परि बहे नैन नद पूर१, मिल हिं सुत मात रे ॥६३॥
जैसे अति शीत के कारण जल हिमालय पर बर्फ बन कर जम जाता है, उस पर कूंज पक्षी अंडा रखकर उष्ण प्रदेशों में आ जाता है । अंडे पर भारी हिम राशि जम जाती है । फिर वैशाख मास में सूर्य की तीक्ष्ण किरणों से बर्फ गल कर जल प्रवाह१ के रूप में नदियों द्वारा बह जाता है, अंडा निरावरण हो जाता है । उसी समय कूंज पक्षी वहाँ पहुंच जाता है और अंडा अपनी माता को प्राप्त कर लेता है । वैसे ही मायिक सुखार्थ बने हुए शरीर में ईश्वर आतम को रखकर, संसार व्यवस्था में संलग्न रहते हैं । आत्मा मायिक सुखों के राग और देहाध्यासादि अज्ञान से नीचे दब जाता है, तब दयालु गुरु उसे ईश्वर से मिलने की प्रेरणा करते हैं । उससे ईश्वर वियोग - व्यथा से वह रोता है तब विषय रागादि गलकर नेत्रों के द्वारा अश्रु रूप से बह जाते हैं, मन निर्मल और स्थिर हो जाता है फिर गुरदेव के द्वारा दिये गये ब्रह्मज्ञान से परब्रह्म को प्राप्त हो जाता है । इस अरिल में ब्रह्मात्मा के वियोग और संयोग दोनों ही की पद्धति बताई गई है ।
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सकल कर्म ताला भये, जीव जड़्या ता माँहि ।
रज्जब गुरु कुँची बिना, कबहूँ खूटे नाँहि ॥६४॥
जीव अपने किये हुये संपूर्ण कर्म रूप ताले में बन्द है गुरु ज्ञान रूप कूँची के बिना यह कभी भी नहीं खुल सकता ।
(क्रमशः)

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