सोमवार, 19 जून 2017

श्री गुरूदेव का अंग ३(६९-७२)


卐 सत्यराम सा 卐
*दादू सुध बुध आत्मा, सतगुरु परसे आइ ।*
*दादू भृंगी कीट ज्यों, देखत ही ह्वै जाइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**श्री गुरूदेव का अंग ३**
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रज्जब नीचे को ऊंचा करे, भगवत् भांडा फोड़ि ।
सो मध्यम उत्तम किये, सद्गुरु इहिं सु खोड़ि ॥६९॥
ईश्वर यदि नीचे जीव को ऊंचा बनाते हैं, तो शरीर छूटने पर कर्मानुसार मनुष्य को देव बना देते हैं, किन्तु सद्गुरु तो वर्तमान शरीर में ही ज्ञानोपदेश द्वारा मध्यम प्राणी को भी उत्तम बना देते हैं ।
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हुमा बावने पारस सद्गुरु, कृत करतहि अधिकार ।
जगदीश ईश ह्वै जन्म दूसरे, इन सौं अब की बार ॥७०॥
१. हुमा नामक एक पक्षी होता है, जो केवल सूखी हड्डियाँ खाकर निर्वाह करता है, किसी को भी नहीं सताता । उसकी छाया जिस पर पड़ जाती है, वह दरिद्री होने पर भी वर्तमान जन्म में ही बादशाह बन जाता है । 
२. बावने चन्दन की सुगंधि से वन - वृक्ष चन्दन बन जाते हैं । 
३. पारस के स्पर्श से लोहा सुवर्ण बन जाता है । 
४. सद्गुरु के ज्ञानोपदेश से जीव वर्तमान शरीर में ही संत बन जाता है । हुमा, बावन, चन्दन, पारस और सद्गुरु को ईश्वर ने ही यह वर्तमान में परिवर्तन करना रूप कार्य का अधिकार दिया है । 
अत: इनसे ही यह कार्य होता है । ईश्वर किसी को राजा बनाते हैं या स्वर्ग में भेजते हैं, ते वर्तमान शरीर को छोड़ने पर ही बनते, भेजते हैं कारण - जिस प्रारब्ध कर्म से शरीर बना है उसे भोगने के पश्चात् ही वर्तमान शरीर में किये कर्म का फल नृपति शरीर दूसरे जन्म में ही मिलता है । हुमा की छाया का फल, पारस के स्पर्श का फल, चन्दन की सुगन्धि का फल भविष्य काल की अपेक्षा नहीं रखता, वैसे ही गुरुदेव के ज्ञानापदेश का फल दूसरे जन्म की अपेक्षा नहीं रखता है । यही गुरुदेव की महिमा है । 
गुरु भृंगी के कृत्य१ को, कृत्य न पूजै२ कोय ।
रज्जब रचना राम की, ये ही पलटे दोय ॥७१॥
गुरु और भृंगी के कार्य१ की समता२ किसी का भी कार्य नहीं कर सकता । राम साधारण मानव और कीट की रचना करते हैं, किन्तु गुरु साधारण मानव को अपने उपदेश द्वारा संत बना कर ब्रह्म से मिला देते हैं और भृंग कीट को भृंग बना देता है । ये दो ही राम की रचना को बदलते हैं, अन्य कोई भी नहीं बदल सकता ।
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रज्जब प्राण पषाण जड़, गुरु गराब१ किये देव ।
पेखो पिंड पलटे प्रथम, सृष्टि सु लागी सेव ॥७२॥
देखो, जो पषाण खण्ड प्रथम पैरों की ठोकरे खाता है, राज१ उसकी देव - मुर्ति बना देता है, फिर सब उसकी पूजा करते हैं । वैसे ही प्राणी प्रथम अज्ञानी होता है, फिर गुरु उपदेश द्वारा उसे संत बना देते हैं और सब संसार उसकी सेवा करता है । 
(क्रमशः)

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