卐 सत्यराम सा 卐
*दादू मन पंगुल भया, सब गुण गये बिलाइ ।*
*है काया नौ-जोबनी, मन बूढ़ा ह्वै जाइ ॥*
*दादू कच्छप अपने कर लिये, मन इन्द्री निज ठौर ।*
*नाम निरंजन लाग रहु, प्राणी परिहर और ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
जितनी अधिक मनुष्य आशा करेगा, उतनी ही ज्यादा निराशा उसे होगी; क्योंकि उतनी ही पराजय मिलती है, उतना ही विषाद और संताप होता है। फिर निराशा से नई आशा जन्म लेती है और ये खेल दिन-रात चलता रहता है। आशा टूट जाये तो न आशा होती है, न निराशा होती है। और तभी मनुष्य शांत होता है।
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आशा और निराशा के झंझावात में चेतना की लौ कंपती रहती है। *जब न आशा रहती है, न निराशा-हवा के झोंके आने बन्द हो जाते हैं-स्थितप्रज्ञता उपलब्ध होती है, चेतना थिर होती है। ये थिरता परम् सौभाग्य है। इस थिरता में ही परम् धन्यता है। ये थिरता ही समाधि है।*
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*'चाहे वह गंगा या समुद्र की यात्रा करे,चाहे अनेक व्रतों का पालन करे,अथवा दान करे; लेकिन यदि ज्ञान नहीं है तो सौ जन्मों में भी मुक्ति न मिलेगी।'* इसे थोड़ा गहराई से समझें। ये सदैव आसान होता है - व्रत कर लेना, दान कर देना, उपवास कर लेना, जीवन में नियम-अनुशासन बना लेना, संयम-मर्यादा से जीना, थोड़ी तपश्चर्या कर लेना - ये सब आसान हैं; क्योंकि कृत्य सदैव आसान हैं, मनुष्य का रूपांतरण होता नहीं और कृत्य हो जाता है।
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*ज्ञान कठिन है क्योंकि....*
*ज्ञान का अर्थ है - रूपांतरण।*
*ज्ञान का अर्थ है - चेतना की गति और दिशा बदले।*
*ज्ञान का अर्थ है - चेतना थिर हो, निष्कंप हो।*
*यह अत्यंत कठिन है।*
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