#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*श्री दादू अनुभव वाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*माया का अंग १२*
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*माया*
दड़ी१ दोट२ ज्यों मारिये, तिहूं लोक में फेर ।
धुर३ पहुंचे सँतोष है, दादू चढबा मेर४ ॥ ९४ ॥
९४ - १०१ में कहते हैं - परब्रह्म को प्राप्त सँतों को छोड़ कर माया का प्रभाव सब पर पड़ता है - जैसे गेंद१ जब तक अपनी सीमा पर न पहुँच जाय तब तक उस पर चोटें२ पड़ती ही रहती हैं, वैसे ही जीव को माया विषय - वासना रूप प्रहार से तीनों लोकों में घुमाती रहती है और जब जीव साधन बल से त्रिगुण रूप माया पर्वत४ की सीमा पर चढ़कर उसे उल्लँघन कर जाता है और ठीक अपने लक्ष्य३ आत्म स्वरूप ब्रह्म३ को प्राप्त कर लेता है तब उसका भ्रमण रुक कर अखँड शाँति मिल जाती है ।
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अनल पँखि आकाश को, माया मेर उलँघ ।
दादू उलटे पँथ चढ़, जाइ विलँबे अँग ॥ ९५ ॥
जैसे अनल पक्षी का बच्चा आकाश से गिरकर, इधर - उधर घूमते हुये पुन: आकाश की ओर उड़ता हुआ पर्वतों को लाँघ कर अपने माता - पिता से जा मिलता है । वैसे ही जीव सँसार में आकर इधर - उधर घूमते हुये सद्गुरु प्राप्त होने पर सँसार से विपरीत परब्रह्म के स्वरूप में पहुंचने वाले ज्ञान - मार्ग से मायिक सँसार को लाँघ कर अपने आत्म स्वरूप ब्रह्म में स्थिर हो जाता है ।
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दादू माया आगे जीव सब, ठाढे रह कर जोड़ ।
जिन सिरजे जल बूँद सौं, तासौं बैठे तोड़ ॥ ९६ ॥
सँसारी प्राणी मायिक पदार्थों के लिए माया वालों के सामने हाथ जोड़ कर खड़े रहते हैं किन्तु जिन परमात्मा ने वीर्य के बिन्दु से इनके कैसे सुन्दर शरीर बना दिये हैं, उनसे प्रेम का सम्बन्ध तोड़ बैठे हैं=भूलगये हैं ।
(क्रमशः)
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