卐 सत्यराम सा 卐
*सूरज सन्मुख आरसी, पावक किया प्रकास ।*
*दादू सांई साधु बिच, सहजैं निपजै दास ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**श्री गुरूदेव का अंग ३**
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रज्जब स्वर्ग नसेनी१ सद्गुरु, सावधान शिष जाँहिं ।
शून्य माँहिं चैतन्य है, ता में सहज समाहि ॥८५ ॥
सद्गुरु का ज्ञान ईश्वर१ के पास पहुँचने की सीढी है, किन्तु जो सावधान शिष्य होते हैं वे ही उस पर चढ़कर अर्थात उसे धारण करके ईश्वर के पास जाते हैं और विकार - शून्य निर्विकल्प समाधि में स्थिर जो चेतन स्वरूप है, उसका साक्षात्कार करके अनायास उसी में समा जाते हैं ।
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गुरु अगस्त१ गगन२ हि रहै, शिष समुद्र धर३ बास ।
रजब ऊंचहु के मिल्यूं, सहज गये आकाश ॥८६ ॥
जैसे सूर्य१ आकाश में रहता है और समुद्र पृथ्वी३ पर रहता है, किन्तु सूर्य की गर्मी से समुद्र - जल आकाश में चढ़ जाता है । वैसे ही गुरु की वृत्ति ब्रह्म२ में रहती है और शिष्य की वृत्ति माया३ में अर्थात मायिक शरीरादि में रहती है, किन्तु श्रेष्ठ गुरुदेव के सत्संग से वह सहज ही ब्रह्म में चली जाती है, अर्थात ब्रह्माकार ही रहने लगती है ।
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सद्गुरु सूरज ले चढे, शिष सत सलिल सुभाइ ।
जन रज्जब नर नीर ज्यों, नीचा आपै जाइ ॥८७ ॥
यह सत्य है कि स्वभाव से जल और नर की गति अपने आप नीचे की ओर ही होता है, किन्तु सूर्य की किरणों से जल आकाश को जाता है और गुरु की कृपा से नर परब्रह्म को प्राप्त होता है ।
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रज्जब ताँबे लोह सौ, बहुत भांति के नंग१ ।
महापुरुष पारस मिले, कुल कंचन के अंग२ ॥ ८८ ॥
ताँबे और लोहे से बनी हुई बहुत प्रकार की वस्तुएँ१ हों और वे पारस से स्पर्श हो जाएँ, तो सब सुवर्ण हो जाती हैं । वैसे ही नाना प्रकार के स्वभाव वाले प्राणी महापुरुष गुरुदेव से जा मिलते हैं, तब संपूर्ण रूप से ब्रह्म के ही स्वरूप२ हो जाते हैं ।
(क्रमशः)
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