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卐 सत्यराम सा 卐
*दादू सहज सरोवर आतमा, हंसा करै कलोल ।*
*सुख सागर सूभर भर्या, मुक्ताहल मन मोल ॥*
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साभार : Archana Maheshwari
*मनुष्य की एक मात्र समस्या : भीतर का खालीपन*
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एक छोटी सी घटना से आज की बात शुरू करना चाहूंगा। सिकंदर महान की मृत्यु हो गई थी। लाखों लोग नगर के रास्तों पर खड़े उसकी अरथी की प्रतीक्षा कर रहे थे। अरथी आई और अरथी महल से बाहर निकली। वे जो खड़े हुए लाखों लोग थे, उन सबके मन में एक ही प्रश्न, उन सब की बात में एक ही प्रश्न और जिज्ञासा पूरे नगर में फैल गई। बड़े आश्चर्य की बात हो गई थी, ऐसा कभी भी न हुआ था। अरथियां तो रोज निकलती हैं, रोज कोई मरता है।
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लेकिन सिकंदर की अरथी निकली थी तो जो बात हो गई थी वह बड़ी अजीब थी। अरथी के बाहर सिकंदर के दोनों हाथ लटके हुए थे। हाथ तो भीतर होते हैं अरथी के। क्या कोई भूल हो गई कि हाथ अरथी के बाहर लटके हुए थे? लेकिन सिकंदर की अरथी और भूल हो जाए, यह भी संभव न था। और एक—दो लोग नहीं, सैकड़ों लोग महल से उस अरथी को लेकर आए थे। किसी को तो दिखाई पड़ गया होगा—हाथ बाहर निकले हुए हैं। सारा गांव पूछ रहा था कि हाथ बाहर क्यों निकले हुए हैं?
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सांझ होते—होते लोगों को पता चला। सिकंदर ने मरते वक्त कहा था, मेरे हाथ अरथी के भीतर मत करना। सिकंदर ने चाहा था, उसके हाथ अरथी के बाहर रहें, ताकि सारा नगर यह देख ले कि उसके हाथ भी खाली हैं।
हाथ तो सभी के खाली होते हैं मरते वक्त। उनके भी जिनको हम सिकंदर जानते हैं, उनके हाथ भी खाली होते हैं।
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लेकिन सिकंदर को यह खयाल कि उसके खाली हाथ लोग देख लें—जिसने दुनिया जीतनी चाही थी, जिसने अपने हाथ में सब कुछ भर लेना चाहा था—वे हाथ भी खाली हैं, यह दुनिया देख ले।
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सिकंदर को मरे हुए बहुत दिन हो गए। लेकिन शायद ही कोई आदमी अब तक देख पाया है कि सिकंदर के हाथ भी खाली हैं। और हम सब भी छोटे—मोटे सिकंदर हैं, और हम सब भी हाथों को भरने में लगे हैं। लेकिन आज तक कोई भी जीवन के अंत में क्या भरे हुए हाथों को उपलब्ध कर सका है? या कि हाथ खाली ही रह जाते हैं? या कि हाथ नहीं भर पाते और हमारा सारा श्रम और हमारी सारी शक्ति अपव्यय हो जाती है?
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अधिकतम लोग असफल मरते हैं। यह हो सकता है कि उन्होंने बड़ी सफलताएं पाई हों संसार में। यह हो सकता है कि उन्होंने बहुत यश और धन अर्जित किया हो। लेकिन फिर भी असफल मरते हैं, क्योंकि हाथ खाली होते हैं मरते वक्त। भिखारी ही खाली हाथ नहीं मरते, सम्राट भी खाली हाथ ही मरते हैं। तो फिर यह सारी जिंदगी का श्रम कहां गया? अगर सारे जीवन का श्रम भी संपदा न बन पाया और भीतर एक पूर्णता न ला पाया, तो क्या हम रेत पर महल बनाते रहे? या पानी पर लकीरें खींचते रहे? या सपने देखते रहे और समय गंवाते रहे? क्या है, इस दौड़ की सारी निष्फलता क्या है?
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एक और छोटी कहानी मुझे स्मरण आती है।
एक महल के द्वार पर बहुत भीड़ लगी हुई थी। और भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। और दोपहर से भीड़ बढ़नी शुरू हुई थी, अब सांझ होने आ गई, सारा गांव ही करीब—करीब उस द्वार पर इकट्ठा हो गया था। क्या हो गया था उस द्वार पर राजमहल के? एक छोटी सी घटना हो गई थी। और घटना ऐसी बेबूझ थी कि जिसने भी सुना वह वहीं खड़ा होकर देखता रह गया। किसी की कुछ भी समझ में न आ रहा था। एक भिखारी सुबह—सुबह आया और उसने राजा के महल के सामने अपना भिक्षापात्र फैलाया। राजा ने कहा कि कुछ दे दो, अपने नौकरों को।
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उस भिखारी ने कहा, एक शर्त पर लेता हूं। यह भिक्षापात्र उसी शर्त पर कोई चीज स्वीकार करता है जब यह वचन दिया जाए कि आप मेरे भिक्षापात्र को पूरा भर देंगे, तभी मैं कुछ लेता हूं। राजा ने कहा, यह कौन सी मुश्किल है! छोटा सा भिक्षापात्र है, पूरा भर देंगे ! और अन्न से नहीं, स्वर्ण अशर्फियों से भर देंगे।
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भिक्षुक ने कहा, और एक बार सोच लें, पीछे पछताना न पड़े। क्योंकि इस भिक्षापात्र को लेकर मैं और द्वारों पर भी गया हूं और न मालूम कितने लोगों ने यह वचन दिया था कि वे इसे पूरा भर देंगे। लेकिन वे इसे पूरा नहीं भर पाए और बाद में उन्हें क्षमा मांगनी पड़ी। राजा हंसने लगा और उसने कहा कि यह छोटा सा भिक्षापात्र ! उसने अपने मंत्रियों को कहा, स्वर्ण अशर्फियों से भर दो।
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यही घटना हो गई थी, राजा स्वर्ण अशर्फियां डालता चला गया था, भिक्षापात्र कुछ ऐसा था कि भरता ही नहीं था। सारा गांव द्वार पर इकट्ठा हो गया था देखने। किसी की समझ में कुछ भी न पड़ता था कि क्या हो गया है ! राजा का खजाना चुक गया। सांझ हो गई, सूरज ढलने लगा, लेकिन भिक्षा का पात्र खाली था। तब तो राजा भी घबड़ाया, गिर पड़ा पैरों पर उस भिक्षु के और बोला, क्या है इस पात्र में रहस्य? क्या है जादू? भरता क्यों नहीं?
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उस भिखारी ने कहा, कोई जादू नहीं है, कोई रहस्य नहीं है, बड़ी सीधी सी बात है। एक मरघट से निकलता था, एक आदमी की खोपड़ी मिल गई, उससे ही मैंने भिक्षापात्र को बना लिया। और आदमी की खोपड़ी कभी भी किसी चीज से भरती नहीं है, इसलिए यह भी नहीं भरता है।
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आदमी खाली हाथ जाता है, इसलिए नहीं कि खाली हाथ जाना जरूरी है, बल्कि आदमी की खोपड़ी में कहीं कुछ भूल है। इसलिए नहीं कि खाली हाथ जाना जीवन से कोई नियम है, कोई अनिवार्यता है। नहीं; जीवन से भरे हाथों भी जाया जा सकता है। और कुछ लोग गए हैं। और जो भी जाना चाहे वह भरे हाथों भी जा सकता है। लेकिन आदमी की खोपड़ी में कुछ भूल है। और इसलिए भरते हैं बहुत, भर नहीं पाता, हाथ खाली रह जाता है।
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कौन सी भूल है? कौन सा सीक्रेट है? कौन सा रहस्य है मनुष्य के मन के साथ कि वह भर नहीं पाता? कौन सा जादू है? और यह मत सोचना कि किसी राजमहल के द्वार पर ही कोई भिक्षु खड़ा था और उसका पात्र नहीं भर पाया था। हम सबके द्वारों पर भिक्षु खड़े हैं और पात्र नहीं भर पा रहे हैं। हम सभी भिक्षु हैं, हमारे पात्र भी नहीं भर पा रहे हैं।
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यहां हम इतने लोग इकट्ठे हैं, आधा जीवन तो करीब—करीब हममें से सभी का बीत चुका है। किसी का आधे से ज्यादा भी बीत चुका होगा, किसी का अभी आधे से कम भी बीता होगा। लेकिन क्या हमारे पात्र थोड़े—बहुत भर पाए हैं? और अगर आधा जीवन बीत जाने पर बिलकुल नहीं भरे हैं, तो शेष आधे जीवन में फिर कैसे भर जाएंगे? पात्र खाली हैं, पात्र खाली रहेंगे, क्योंकि आदमी के मन के साथ कुछ गड़बड़ है। क्या गड़बड़ है? उसी संबंध में थोड़ी सी बात आज संध्या मैं आपसे कहूंगा।
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मनुष्य के मन के साथ क्या भूल है? क्या उलझाव, कौन सी पहेली है जो सुलझ नहीं पाती? और इस पहेली को बिना सुलझाए जो जिंदगी में भाग—दौड़ करने में लग जाता है, वह तो बिलकुल पागल है। जिसने अपने मन की समस्या को, इस उलझाव को, इस रहस्य को नहीं समझ लिया है ठीक से, उसके जीवन की सारी दौड़ व्यर्थ है, निरर्थक है। वह तो बिना समस्या को समझे और समाधान करने को निकल पड़ा है। और जिसने समस्या ही न समझी हो क्या वह समाधान कर सकेगा?
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तिब्बत में एक शिक्षक के बाबत बड़ी प्रसिद्धि है, बाद में वह फकीर हो गया। जब वह शिक्षक था विश्वविद्यालय में, तीस वर्षों तक शिक्षक रहा, गणित का शिक्षक था, हर वर्ष जब नये विद्यार्थी आते और उसकी कक्षा शुरू होती, तो तीस वर्ष से निरंतर एक ही सवाल से उसने कक्षा को शुरू किया था, एक ही गणित, एक ही प्रश्न। वह जैसे ही पहले दिन, वर्ष के पहले दिन कक्षा में जाता और नये विद्यार्थियों का स्वागत करता; तख्ते पर जाकर दो अंक लिख देता—चार और दो— और लोगों से पूछता, क्या हल है इसका?
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कोई लड़का चिल्लाता, छह ! लेकिन वह सिर हिला देता। कोई लड़का चिल्लाता, दो ! लेकिन वह सिर हिला देता। और तब सारे लड़के चिल्लाते — क्योंकि अब तो एक ही और संभावना रह गई थी; जोड़ लिया गया, घटा लिया गया, अब गुणा करना और रह गया था—तो सारे लड़के चिल्लाते, आठ ! लेकिन वह फिर सिर हिला देता। और तीन ही उत्तर हो सकते थे, चौथा कोई उत्तर न था, तो लड़के चुप रह जाते।
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और तब वह शिक्षक उनसे कहता, तुमने सबसे बड़ी भूल यही की कि तुमने मुझसे यह नहीं पूछा कि प्रश्न क्या है, और तुम उत्तर देना शुरू कर दिए। मैंने चार लिखा और दो लिखा, यह तो ठीक, लेकिन मैंने प्रश्न कहां बोला था? और तुम उत्तर देना शुरू कर दिए। और वह शिक्षक कहता कि मैं अपने अनुभव से कहता हूं गणित में ही यह भूल नहीं होती, जिंदगी में भी अधिक लोग यही भूल करते हैं। जिंदगी के प्रश्न को नहीं समझ पाते और उत्तर देना शुरू कर देते हैं।
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जिंदगी की समस्या, जिंदगी का प्रॉब्लम क्या है? किस बात का उत्तर खोज रहे हैं? कौन सी पहेली को हल करने निकल पड़े हैं? इसके पहले कि कोई पहेली को हल कर पाए, उसे ठीक से जान लेना होगा—प्रश्न क्या है? जिंदगी की समस्या क्या है?
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मनुष्य की समस्या उसका मन है। और मन की समस्या, कितना ही उसे भरो, न भरना है। मन भर नहीं पाता है। क्या है इसके पीछे? कौन सा गणित है जो हम नहीं समझ पाते और जीवन भर रोते हैं और परेशान होते हैं? कौन सी कुंजी है जो इस जीवन की समस्या को सुलझाकी और हल कर देगी? बिना इसे समझे, चाहे हम मंदिरों में प्रार्थनाएं करें, चाहे मस्जिदों में नमाज पढ़ें, चाहे आकाश की तरफ हाथ उठा कर परमात्मा से आराधना करें, कुछ भी न होगा, कुछ भी न होगा।
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क्योंकि जो आदमी अभी अपने मन को ही सुलझाने में समर्थ नहीं हो सका, उसकी प्रार्थना का कोई भी मूल्य नहीं हो सकता है। और जो मनुष्य अभी अपने भीतर ही स्पष्ट नहीं हो सका है जीवन की समस्या के प्रति, वह जिन मंदिरों में जाएगा, उसके साथ ही और भी उपद्रव वहां पहुंच जाएंगे। मंदिर से वह तो शांत होकर नहीं लौटेगा, लेकिन मंदिर की शांति को जरूर खंडित कर आएगा। भीतर जो उलझा हुआ है वह जो भी करेगा, कनफ्यूज माइंड जो भी करेगा, उससे जीवन में और कनफ्यूजन, और परेशानी, और उलझाव बढ़ता है। हम एक पागल आदमी से सलाह लेने नहीं जाते, क्योंकि पागल जो भी सलाह देगा वह और भी उपद्रव की हो जाएगी। पागल जो सुलझाव उपस्थित करेगा वह और भी पागलपन का हो जाएगा।
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एक राजा का एक मंत्री पागल हो गया था। और अक्सर मंत्री पागल हो जाते हैं। सच तो यह है कि जो पागल नहीं होते वे कभी मंत्री ही नहीं होते। राजा का मंत्री पागल हो गया था। राजा सोया हुआ था, उस मंत्री ने जाकर सोए हुए राजा को चूम लिया। राजा घबड़ा कर उठा और उसने कहा कि यह तुम क्या करते हो? इसकी सजा सिवाय मौत के और कुछ भी नहीं हो सकती ! मुझे चूमने का तुमने साहस किया !
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उस मंत्री ने कहा, माफ करें, मैं तो समझा कि महारानी सो रही हैं।
यह उन्होंने उत्तर दिया था। राजा हैरान हो गया, वह बोला कि निश्चित ही तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। क्योंकि तुमने जो अपराध किया है और उस अपराध से बचने के लिए तुम जो दलील दे रहे हो, वह और भी बड़ा अपराध है।
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करीब—करीब ऐसे ही जीवन की समस्या को सुलझाने के लिए हम जो करते हैं वह और भी बड़ी समस्या खड़ी कर देता है। हमारे मन उलझे हुए हैं, उलझे हुए मन को लेकर हम क्या हल कर पाएंगे? लेकिन हम बड़े अजीब लोग हैं। इस उलझे हुए मन को लेकर गीता पढ़ते हैं, गीता पर टीका भी करते हैं; कुरान पढ़ते हैं, कुरान पर भाष्य लिखते हैं, उपनिषद पढ़ते हैं। हम जब गीता और उपनिषद पढ़ते हैं, तब जो हम जान पाते हैं, वह गीता और उपनिषद नहीं हैं। हमारे उलझे मन गीता को भी उलझा लेते हैं, उपनिषद को भी उलझा लेते हैं। और तब हमारा उलझाव बढ़ता ही चला जाता है और फैलता ही चला जाता है, उसमें कोई ओर—छोर मिलना कठिन हो जाता है। इसलिए पहली और बुनियादी बात पूछनी जरूरी है इस मन का प्रॉब्लम क्या है? इस मन की समस्या क्या है?
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सबसे पहली बात, वह यह, हमारे भीतर जो यह आकांक्षा और दौड़ होती है कि हम भर लें अपने को, फुलफिलमेंट की, पूर्णता की, पा लेने की, कुछ हो जाने की, यह दौड़ इसलिए पैदा होती है कि हमें अहसास होता है कि भीतर हम खाली हैं, भीतर अभाव है, भीतर एंप्टीनेस है, भीतर कुछ भी नहीं है।
भीतर मालूम होता है ना—कुछ, भीतर मालूम होता है शून्य, उस शून्य को भरने के लिए हम दौड़ते हैं, दौड़ते हैं, दौड़ते हैं।
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लेकिन क्या आपको पता है कि जो शून्य भीतर है, उसे बाहर की कितनी ही सामग्री से भरना असंभव है! क्योंकि शून्य है भीतर और हमारे साम्राज्य होंगे बाहर, साम्राज्य बढ़ते चले जाएंगे, शून्य अपनी जगह बना रहेगा। इसीलिए तो सिकंदर खाली हाथ मरता है। नहीं तो सिकंदर के हाथ में तो बड़ा साम्राज्य था, बड़ी धन—दौलत थी। शायद ही किसी आदमी कै पास इतना बड़ा साम्राज्य रहा हो, इतनी धन—दौलत रही हो। खाली हाथ क्यों मरता है यह आदमी? यह खाली हाथ किस बात की सूचना है? यह सूचना है कि भीतर जो खालीपन है वह नहीं भरा जा सका। बाहर सब इकट्ठा हो गया; लेकिन नहीं, भीतर कुछ भी नहीं पहुंच सका।
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कौन सी चीज भीतर पहुंच सकती है? बाहर की कोई भी चीज भीतर नहीं पहुंच सकती। बाहर के मित्र बाहर हैं, बाहर की संपदा बाहर है, बाहर का धन, बाहर की यश—प्रतिष्ठा, सब बाहर है। और भीतर हूं मैं। मेरे अतिरिक्त मेरे भीतर कोई भी नहीं। मेरा होना ही मेरा भीतर है। मेरा बीइंग ही मेरा, मेरा आंतरिक शून्य है, मेरी आंतरिक रिक्तता है। भीतर मैं हूं खाली, बाहर मैं दौड़ता हूं कि भरूं, भरूं। बहुत इकट्ठा कर लेते हैं दौड़ कर। लेकिन जब आंख उठा कर देखते हैं तो पाते हैं— भीतर तो सब खाली है, दौड़ तो व्यर्थ गई।
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दौड़ इसलिए व्यर्थ गई कि जिस दिशा में शून्यता थी, उसके विपरीत दिशा में हमने श्रम किया। दौड़ इसलिए खाली गई कि जहां गड्डा था वहां तो हमने नहीं भरा, हमने ढेर कहीं और लगाए। गड्डा गडु[ बना रहा, ढेर बड़े—बड़े हो गए, लेकिन गड्डा नहीं मिटा।
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भीतर है गड्डा, भीतर एक खाई—खंदक है। भीतर देखें एकदम खाली है, कुछ भी तो नहीं वहां। न वहां आपका मकान है, न आपका धन, न आपकी दौलत। हो सकता है कि बाहर एक के पास बड़ा मकान हो और दूसरे के पास कुछ भी न हो, सड़क पर खड़ा हो। लेकिन भीतर? भीतर दोनों एक समान खाली हैं। भीतर कोई फर्क नहीं है भिखारी और सम्राट में, भीतर का खालीपन बराबर एक सा है। भीतर हम सब भिखमंगे हैं।
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