शुक्रवार, 23 जून 2017

= ११५ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू जीव जंजालों पड़ गया, उलझ्या नौ मण सूत ।*
*कोई इक सुलझे सावधान, गुरु बाइक अवधूत ॥* 
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साभार ~ Archana Maheshwari
एक मुसलमान फकीर था, फरीद। वह अकबर से मिलने गया। उसके मित्रों ने फरीद से कहा था, अकबर से करना प्रार्थना कि हमारे गांव में एक स्कूल बना दे। अकबर फरीद को बहुत मानता था, आदर देता था। फरीद ने सोचा जाऊं। वह गया, सुबह—सुबह जल्दी गया। अकबर नमाज पढ़ता था। फरीद पीछे खड़ा हो गया। अकबर ने नमाज पढ़ी, नमाज पूरी की और हाथ जोड़े परमात्मा की तरफ और कहा, हे परमपिता, मेरे राज्य को और बड़ा कर, मेरे धन को और बढ़ा।
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फरीद वापस लौट पड़ा। अकबर उठा तो देखा फरीद मस्जिद की सीढ़ियां उतर रहा है। अकबर दौड़ा और रोका कि कैसे आए और कैसे चले?
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फरीद ने कहा, मैं सोचता था एक सम्राट के पास जा रहा हूं। यहां मैंने देखा, यहां भी एक भिखारी है। मैंने भूल से तुम्हारी नमाज का आखिरी हिस्सा सुन लिया। तुमने भी मांगा और राज्य, और धन। तुम भी मांगते हो! मैं लौट पड़ा कि जो अभी खुद ही मांग रहा है उससे हमारा मांगना ठीक नहीं, अशिष्ट है। और फिर मैंने सोचा तुम जिससे मांगते हो, अगर मांगना ही होगा तो हम भी उसी से मांग लेंगे, तुमको बीच में क्यों लें?
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लेकिन फरीद ने अपने गांव में जाकर कहा, मित्रों, मैं सोचता था अकबर सम्राट है और मैं भिखारी हूं। मैंने जाकर जब झांक कर देखा तो मैंने पाया, अकबर भी भिखारी है! तो मैं उससे नहीं कह सका कि स्कूल बनवा दो गांव में एक। वह तो खुद ही अभी मांग रहा है। उसका मांगना खत्म हो जाए तो फिर हम उससे कुछ कहें।
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लेकिन मांगना क्या कभी किसी का खत्म होता है? मरते दम तक, आखिरी क्षण तक आदमी मांगे चला जाता है। क्यों? भीतर का खालीपन नहीं भरता ! आखिरी क्षण भी हम सोचते हैं कि शायद कुछ मिल जाए और हम भर जाएं, और हमें लगे कि हम कुछ हो गए और हमने कुछ पा लिया। नहीं लेकिन, यह नहीं हो पाता। यह नहीं हो सकता है, यह इपासिबिलिटी है, इसके होने का कोई उपाय नहीं है।
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इसलिए नहीं है उपाय कि भीतर है शून्य, बाहर है सामग्री। फिर हम क्या करें? इस भीतर के शून्य को कैसे भरें? कैसे हमें अहसास हो जाए कि अब मेरी कोई मांग नहीं?
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उसी दिन आदमी जीवन में कहीं पहुंचता है जिस दिन उसकी कोई मांग नहीं रह जाती, जिस दिन उसका भिखारी मर जाता है। धर्म प्रत्येक मनुष्य को ऐसी जगह ले जाना चाहता है जहां वह सम्राट हो जाए। दिखता तो ऐसा है कि संसार में सम्राट होते हैं, लेकिन जो जानते हैं वे कहेंगे, संसार में कभी कोई सम्राट नहीं हुआ, सभी भिखारी हैं। यह दूसरी बात है कि कुछ भिखारी छोटे हैं, कुछ भिखारी बड़े हैं; यह दूसरी बात है कि किन्हीं का भिक्षापात्र छोटा है, किन्हीं का बड़ा है; यह दूसरी बात है कि कुछ रोटी मांगते हैं, कोई राज्य मांगता है। लेकिन मांगने के संबंध में कोई भिन्नता नहीं, भिखमंगेपन में कोई भेद नहीं। धर्म तो समझता है कि केवल वे ही लोग सम्राट हो सकते हैं जो भीतर एक आंतरिक संपूर्णता को उपलब्ध होते हैं। उनकी सारी मांग मिट जाती है। उनकी दौड़, उनके भिक्षा का पात्र टूट जाता है।
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बुद्ध बारह वर्षों के बाद अपने गांव वापस लौटे थे। उनके हाथ में भिक्षापात्र था, भिखारी के वस्त्र थे। उनके पिता उन्हें लेने गांव के बाहर आए। तो पिता ने अपने लड़के को कहा, मुझे देख कर दुख होता है! राज—परिवार में पैदा होकर तू क्यों हमारे नाम को कलंक लगाता है और भिक्षा का पात्र अपने हाथ में लिए हुए है? क्या कमी है हमारे पास जो तू भिक्षा का पात्र लेकर घूम रहा है?
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बुद्ध हंसे और उन्होंने अपने पिता से क्या कहा? उन्होंने कहा, क्षमा करें, लेकिन मेरे देखे भिखारी आप हैं, मैं तो सम्राट हो गया हूं। मेरी तो सारी मांग समाप्त हो गई, मैंने तो मांगना बंद कर दिया, मैं तो कुछ भी नहीं मांगता हूं। आपकी मांग अभी जारी है, आप अभी मांगे ही चले जा रहे हैं। फिर भी अपने को सम्राट कहते हैं?
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लेकिन हमें यह दिखाई नहीं पड़ता, हमें यह खयाल में नहीं आता कि हम मांगे चले जा रहे हैं, मांगे चले जा रहे हैं। क्या मांग रहे हैं हम? हम सारे लोग ही एक बात मांग रहे हैं कि किसी भांति हमारे भीतर का यह खालीपन मिट जाए, यह शून्यता मिट जाए। हम भरे—पूरे हो जाएं, हमारे जीवन में कुछ आ जाए जो हमारे भीतर के अभाव को, जो नथिगनेस मालूम होती है भीतर, उसको पूरा कर दे। हम किसी भांति पूर्ण हो जाएं।
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लेकिन यह नहीं होगा तब तक, जब तक हम बाहर दौड़े चले जाते हैं। बाहर की दौड़ का भ्रम, वह इल्‍यूजन कि बाहर से हम अपने को भर लेंगे, टूट जाना जरूरी है। तोड्ने के लिए कोई बहुत श्रम करने की बात भी नहीं है, केवल आंख खोलने की बात है। थोड़ा जीवन को आंख खोल कर देखने की बात है, चारों तरफ आंख खोल कर देखने की बात है। सिकंदर के खाली हाथ आंख खोल कर देखने की बात है, सब के खाली हाथ आंख खोल कर देखने की बात है। जीवन में चारों तरफ देखने की बात है कि लोग क्या कर रहे हैं और क्या पा रहे हैं? क्या मिल रहा है? क्या है उनकी उपलब्धि? क्या है जीवन भर का निष्कर्ष? कहां वे पहुंच गए हैं? कहीं पहुंच गए हैं या कोल्हू के बैल की तरह चक्कर काट रहे हैं? सिर्फ लगता है कि चल रहे हैं या कि कहीं पहुंच भी रहे हैं? पूछें लोगों से, देखें लोगों को, समझें लोगों को, झांकें लोगों के भीतर— कौन कहां पहुंच रहा है? और अपने भीतर भी—मैं कहां पहुंच रहा हूं?
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जो मनुष्य इतना भी नहीं पूछता और चला जाता है, बहा जाता है, वह तो मनुष्य होने का अधिकार भी खो देता है। फिर उसके जीवन में अगर उलझनें बढ़ती चली जाएं तो कौन है जिम्मेवार? कौन है रिस्पांसिबल? किसका उत्तरदायित्व है? सिवाय स्वयं के और तो किसी का भी नहीं।
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हम जीवन को कभी खोज के लिए, जीवन को पूछने के लिए खड़े भी नहीं होते, आंख खोल कर देखते भी नहीं कि यह क्या हो रहा है? जिन गड्डों में हम दूसरे लोगों को गिरते देखते हैं, हम खुद उन्हीं गड्डों की तरफ बढ़े जाते हैं। जिन रास्तों पर हम दूसरे लोगों को जीवन को मिटाते देखते हैं, उन्हीं रास्तों पर हम भी दौड़े चले जाते हैं। देखते हैं चारों तरफ, फिर भी आंख शायद हम खोल कर नहीं देखते। अन्यथा यह कैसे हो सकता था कि वे ही भूलें हजारों वर्ष से जो मनुष्य कर रहा है, हर पीढ़ी उन्हीं भूलों को किए चली जाए! 
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दस हजार वर्ष का इतिहास क्या है? दस—पांच भूलों को बार—बार दोहराए जाने के सिवाय और क्या है? हर पीढ़ी कोई नई भूलें करे तो भी ठीक है, तो भी समझ में आए कि कोई नई भूलें हो रही हैं, दुनिया में विकास हो रहा है। हर पीढ़ी वही भूलें करती है, वही रिपीटीशन, रिपीटीशन……। जो मेरे पिता भूल करते हैं, जो उनके पिता करते हैं, जो उनके पिता, वही मैं करता हूं वही मेरे बच्चे करेंगे, वही उनके बच्चे करेंगे। मनुष्य—जाति किसी कोल्हू के चक्कर में पड़ गई है। करीब—करीब एक सी भूलें हर पीढ़ी दोहरा देती है और खत्म हो जाती है।
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नई भूलें हों तो भी स्वागत किया जा सकता है उनका, लेकिन पुरानी भूलें अगर बार—बार होती हों, तो एक ही बात पता चलती है कि शायद मनुष्य आंख खोल कर भी देखता नहीं और चल पड़ता है। शायद हम सोए—सोए चल रहे हैं, शायद हम नींद में हैं, शायद हम जागे हुए नहीं हैं, कोई गहरी निद्रा हमें पकड़े हुए है। अन्यथा यह कैसे हो सकता था, यह कैसे संभव था कि दस हजार वर्ष तक मनुष्य निरंतर कुछ बुनियादी भूलों को बार—बार दोहराता चला जाए? दस हजार साल की महत्वाकांक्षा की मूर्खता आज भी हमें दिखाई नहीं पड़ती। एंबीशन का पागलपन आज भी दिखाई नहीं पड़ता। दस हजार वर्ष की हिंसा, युद्ध, उनकी नासमझी हमें आज भी दिखाई नहीं पड़ती। हम नये—नये नाम लेकर फिर भी लड़े जाते हैं, नाम बदल लेते हैं, लड़ाई जारी रखते हैं।
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पांच हजार साल में पंद्रह हजार युद्ध लड़े हैं आदमी ने। पंद्रह हजार युद्ध केवल पांच हजार साल में! तीन युद्ध प्रति वर्ष! या तो आदमी पागल है या यह क्या है? और हर युद्ध को लड़ने वालों ने यह समझा है कि हम शांति के लिए लड़ रहे हैं। पंद्रह हजार युद्ध! और हर युद्ध का लड़ने वाला यह समझता है कि हम शांति के लिए लड़ रहे हैं। और आज भी जो युद्ध हम लड़ते हैं, उसमें भी हम कहते हैं, शांति के लिए इस युद्ध को लड़ रहे हैं। पंद्रह हजार युद्ध लड़े जा चुके शांति के लिए, शांति नहीं आई। एक और युद्ध लड़ने से शांति आ जाएगी? पंद्रह हजार युद्धों की मूर्खता दिखाई नहीं पड़ती?
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जरा भी दिखाई नहीं पड़ती। हर नया युद्ध ऐसा मालूम पड़ता है और ही तरह का युद्ध है। पुराने लोगों ने की होगी गलती। हम जो युद्ध लड़ रहे हैं, यह बात ही और है, इससे तो शांति की रक्षा हो जाएगी।
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यही वहम उनको भी था। अगर यह वहम उनको न होता तो वे भी न लड़े होते। और जब तक हमें भी यह वहम है तब तक हम भी लड़े जाएंगे, लड़ाई बंद नहीं हो सकती है। लेकिन वहम नहीं टूटता, पंद्रह हजार युद्ध लड़ने के बाद भी हमें दिखाई नहीं पड़ती युद्ध की मूर्खता, नासमझी। और भी सब मामलों में यही है, सब मामलों में यही है।

हम से पहले अरब—अरब लोग जमीन पर रहे हैं, उन सबने क्या किया था, वही हम कर रहे हैं। किन चीजों के लिए वे जीए और मरे, वही हम कर रहे हैं।
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च्चांगत्से नाम का एक चीनी फकीर एक मरघट से निकलता था। वह मरघट कोई साधारण मरघट नहीं था। उस राजधानी में दो मरघट थे छोटे लोगों का मरघट और बड़े लोगों का मरघट। आदमी जिंदा में तो छोटे और बड़े होते ही हैं, मरने के बाद भी फासला रखते हैं। बड़े आदमियों का मरघट अलग होता है। मिट्टी में मिल जाते हैं, लेकिन बड़े होने का खयाल नहीं मिटता। कब अलग बनवाते हैं, चिता अलग जलवाते हैं। वह मरघट बड़े लोगों का मरघट था। च्चांगत्से वहां से निकलता था तो उसके पैर में एक खोपड़ी की चोट लग गई। उसने उस खोपड़ी को उठा लिया और अपने मित्रों से कहा, बड़ी भूल हो गई। किसी बड़े आदमी के सिर में मेरा पैर लग गया।
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उसके मित्र हंसे और उन्होंने कहा, एक मुर्दे को पैर लग भी गया तो क्या हर्जा है? च्चांगत्से ने कहा, हंसो मत ! क्योंकि यह आदमी किसी दिन जिंदा रहा होगा और किसी दिन इसके सिर में पैर लगाना तो दूर इसके सिर की तरफ अंगुली उठाना भी खतरनाक हो सकता था। संयोग की बात है कि बेचारा मर गया। इसके बस में न था, नहीं तो यह मरता भी नहीं। लेकिन फिर भी मुझे तो क्षमा मांगनी ही चाहिए, भूल हो गई।
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वह उस खोपड़ी को घर उठा लाया। उस खोपड़ी को सदा अपने पास रखता था। लोग उससे पूछते, यह क्या किए हुए हैं? तो वह कहता, मैं इससे रोज क्षमा मांग लेता हूं। जिंदा आदमी होता तो एक ही बार क्षमा करने से, क्षमा मांगने से क्षमा भी मिल जाती। अब यह मुर्दा है, यह बोलता भी नहीं, उत्तर देता भी नहीं। मैं बड़ी अड़चन में पड़ गया हूं। जिंदा आदमी हो तो क्षमा भी मिल सकती है, मुर्दा आदमी से क्षमा मिलना भी कठिन है। इसीलिए तो जो मुर्दा होते हैं वे कभी किसी को क्षमा नहीं करते, जिंदा आदमी तो क्षमा भी कर सकता है।
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तो उस च्चांगत्से ने कहा, बड़ी मुश्किल है। ये है मुर्दा, मुझसे हो गई है भूल, सिर में लग गई है इसके चोट, नाराज तो जरूर हो रहा होगा। क्योंकि जो आदमी जिंदा है वह तो नाराज भी नहीं होता है, मुर्दे बहुत नाराज होते हैं, बहुत गुस्से में आ जाते हैं। इससे मांगता हूं क्षमा, पता नहीं इस तक पहुंचती है कि नहीं पहुंचती, इसलिए रोज मांग लेता हूं। फिर एक बात और है, इसे साथ रखने से मुझे एक फायदा हुआ। मुझे अपनी खोपड़ी के बाबत जो इल्‍यूजन था, जो भ्रम था, वह टूट गया। अब मेरे सिर में कोई लात भी मार दे तो भी मैं हसूंगा, क्योंकि मैं जानता हूं कि यह सिर आज नहीं कल लातों के नीचे आ जाने को है। तो जो आज नहीं कल लातों के नीचे आ जाने को है, उसके लिए परेशान होना कहां की समझदारी हो सकती है?
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च्चांगत्से ने कहा, इस खोपड़ी को देखते—देखते मुझे अपनी खोपड़ी के बाबत भी बड़ी सच्चाइयों का पता चल गया। मैं इसके बाबत नाहक भ्रम में था, मैं इसको सदा ऊंचा और ऊपर रखने की कोशिश करता था। फिर मुझे पता चला यह तो नीचे गिरने को है। तो मैंने, मुझे एक बात दिखाई पड़ गई।
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यह बात हम में से कितनों को दिखाई पड़ती है? और अगर नहीं दिखाई पड़ती, तो हम अगर सोए हुए या अंधे की तरह चल रहे हैं, यह कहने में कौन सी गलती है? यह हमें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता है। और इसीलिए हमें यह भी नहीं दिखाई पड़ता कि बाहर की दौड़ हमेशा व्यर्थ रही है, हम भी उसी दौड में दौड़े चले जाते हैं। हमें असल में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। दिखाई पड़ने से हमारा कोई संबंध ही नहीं रहा। हम जीवन के किसी भी, किसी भी तल पर आंख खोल कर देखने में असमर्थ से हो गए हैं। हम देखते ही नहीं, या हो सकता है हम देखना न चाहते हों।

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