शुक्रवार, 2 जून 2017

श्री गुरूदेव का अंग ३(२५-८)



卐 सत्यराम सा 卐
मीरां मुझ सौं महर कर, सिर पर दीया हाथ ।
दादू कलियुग क्या करै, सांई मेरा साथ ॥ 
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साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
**श्री रज्जबवाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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**श्री गुरूदेव का अंग ३**
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गुरु दादू का हाथ शिर, हृदय त्रिभुवन नाथ ।
रज्जब डरिये कौन सौं, मिल्या सहायक साथ ॥२५ ॥ 
मेरे शिर पर गुरुदेव दादुजी का हस्त है, और हृदय में त्रिलोक के स्वामी परमात्मा हैं, गुरु दादूजी की कृपा से सदा साथ रहने वाले परमात्मा सहायक मिल गये हैं, अब किससे डर सकता हूँ ?
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गुरू दादू की गति गहै, ता शिर मोटे भाग । 
जन रज्जब युग युग सुखी, पावे परम सुहाग ॥२६ ॥
२६ - २९ में दादूजी की साधन पद्धति ग्रहण करने वाले को बड़भागी बता रहे हैं - यदि कोई गुरूदेव दादू जी की साधु रूप चाल को ग्रहण करता है तो, जानना चाहिये उसके शिर पर सौभाग्य के अंक अंकित है, वह परब्रह्म प्राप्ति रूप सौभाग्य को प्राप्त करके प्रति युग सुखी रहेगा ।
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शब्द सुरति गुरू शिष्य है, मिले श्रवण सु स्थान ।
भाव भेंट परि दया दत, रज्जब दे ले जान ॥ २७ ॥
शब्द ही गुरू हैं और वृत्ति ही शिष्य है । शब्द वक्ता के मुख से आता है और वृत्ति अन्त:करण से आती है, दोनों का मिलन श्रवण रूप सुन्दर स्थान पर होता है, वृत्ति -शिष्य भाव रूप भेंट देता है तब शब्द गुरू से दया पूर्वक ज्ञान रूप दान लेता है । शब्द और वृत्ति ही यर्थात गुरू शिष्य हैं यह बात सत्य जानो ।
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सर्वस्व दे सर्वस्व लिया, शिष सद्गुरु कने१ आय । 
रज्जब महद मिलाप की, महिमा कही न जाय ॥ २८ ॥ 
शिष्य सद्गुरु के पास१ जाकर अपना तन, मन, धनादि सब कुछ गुरु के समर्पण करता है तब भक्ति, योग, ज्ञानदिक जो भी गुरु के पास होता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है । इस गुरु और शिष्य के महान मिलन की महिमा इतनी महान है कि मुख से तो कही नहीं जा सकती । 
(क्रमशः)

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