शुक्रवार, 23 जून 2017

श्री गुरूदेव का अंग ३(८१-४)

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卐 सत्यराम सा 卐
*सोने सेती बैर क्या, मारे घण के घाइ ।*
*दादू काटि कलंक सब, राखै कंठ लगाइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**श्री गुरूदेव का अंग ३**
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वसुधा माँहीं बीज हैं, त्यों आतम अंकूर ।
पै गगन गुरु वर्षा बिना, प्रगट न ह्वै मा१ सूर२ ॥८१॥
पृथ्वी में बीज तो रहते हैं, किन्तु आकाश की वर्षा बिना अंकुर निकल कर प्रगट नहीं होते । वैसे ही जीवात्मा में ज्ञान तो रहता है, किन्तु गुरु उपदेश बिना उसके अन्त:करण में१ ब्रह्मानन्द२ प्रगट नहीं होता ।
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अंकुर अग्नि शिष सार में, पै घाट घङ्या नहिं जाय ।
ब्रह्म अग्नि गुरु बकत्र ह्वै, जब लग परे न आय ॥८२॥
जैसे लोहे में अग्नि तो है, परन्तु बाहर के अग्नि से जब तक उसे न तपाया जाय तब तक उसकी कोई शस्त्रादि वस्तु नहीं बन सकती । वैसे ही शिष्य में ज्ञान के अंकुर तो हैं, किन्तु जब तक गुरु के मुख से उसके श्रवण में ब्रह्म - ज्ञानाग्नि नहीं पङता तब तक वह ब्रह्मज्ञानी नहीं बन सकता ।
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ब्रह्म अग्नि गुरु उर रहे, तहाँ परे शिष सार ।
घाट काट सु कढाहि कर, पुनि पावक सु नियार ॥८३॥
जैसे लोहे की वस्तु अग्नि में पङती है तब अग्नि उसके मैल को जला डालता है और पुन: उससे अलग हो जाता है। वैसे ही शिष्य गुरु के हृदय में रहने वाले ब्रह्म - ज्ञान रूप अग्नि में पङता है, अर्थात गुरु के मुख से श्रवण करके धारण करता है, तब अपने अन्त:करण के मल विक्षेप आवरण रूप मैल को निकलवाकर आनन्दित होता है और वह ब्रह्म-ज्ञान रूप अग्नि भी अन्त:करण से अलग होकर आत्म - स्वरूप से रहता है ।
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तवा तेग अंकुश कुश आतम, पारस प्रभु को पाय ।
रज्जब पलटे तिनहुँ मिल, पै गुरु सोनी बँक जाय ॥८४॥
लोहे के बने तवा, तलवार, अंकुश और कुश, पारस से स्पर्श होते ही स्वर्ण बन जाते हैं, किन्तु उनके ब्रकतादि आकार और नाम ज्यों के त्यों बने रहते हैं । फिर वे स्वर्णकार के पास जाते हैं तब वह उन्हें गला कर एक कर देता है । पूर्व के नाम और आकार नहीं रहते, मात्र सुवर्ण नाम रहता है । वैसे ही प्राणी उपासना द्वारा साकार प्रभु को प्राप्त करके अति श्रेष्ठ बन जाता है, किन्तु उसका जीवत्व भ्रम नष्ट नहीं होता । जब ब्रह्मनिष्ठ गुरु प्राप्त होते हैं तब ही भ्रम नष्ट होता है, फिर अपने को ब्रह्मस्वरूप ही समझता है ।
(क्रमशः)

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