卐 सत्यराम सा 卐
सत गुरु किया फेरि कर, मन का औरै रूप ।
दादू पंचों पलटि कर, कैसे भये अनूप ॥
=========================
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
**श्री रज्जबवाणी** टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
.
**श्री गुरूदेव का अंग ३**
.
मात पिता का दान ले, दिया सबन का भंग ।
जन रज्जब जीव में जट्या, युग युग गुरु दत्त संग ॥४५ ॥
४५ में गुरु उपदेश दान की अपारता बता रहे हैं - माता पितादि सब संसारियों का दिया हुआ धन तो लेने के पीछे कोई दिन नष्ट हो जाता है किन्तु गुरु का दिया हुआ उपदेश जीव में संस्कार रूप से जटित प्रति युग में ही रहता है ।
.
जन रज्जब जीव में जट्या, युग युग गुरु दत्त संग ॥४५ ॥
४५ में गुरु उपदेश दान की अपारता बता रहे हैं - माता पितादि सब संसारियों का दिया हुआ धन तो लेने के पीछे कोई दिन नष्ट हो जाता है किन्तु गुरु का दिया हुआ उपदेश जीव में संस्कार रूप से जटित प्रति युग में ही रहता है ।
.
गुरु तरूवर अँग डाल बहु, पत्र बैन फल राम ।
रज्जब छाया में सुखी, चाख्यूं सरे सु काम ॥४६ ॥
४६ में गुरु की विशेषता कह रहे हैं - गुरूदेव विशाल वृक्ष हैं, उन में जो गुरुपने के बहुत से लक्षण हैं वे ही डालें हैं उनके वचन ही पत्ते हैं, और राम ही फल है गुरु-वृक्ष की सत्संग रूप छाया में जो बैठते हैं वे सुखी रहते हैं और जो राम रूप फल का साक्षात्कार रूप आस्वादन करते हैं, उनका मुक्ति रूप कार्य सिध्द होता है ।
.
रज्जब नर नारी युगल, चकवा चकवी जोड़ ।
सद्गुरु बैन बिच रैन में, किया दुहूँ घर फोड़ ॥४७ ॥
४७ में गुरु वचन की विशेषता बता रहे हैं - नर और नारी दोनों चकवा चकवी की जोड़ी के सामान हैं, श्रेष्ठ गुरु के वचन ही रात्रि है । रात्रि में जैसे चकवा चकवी अलग हो जाते हैं वैसे ही गुरु वचन हृदय में आने से नर नारी का मिलन नहीं होता । गुरु वचन नर और नारी दोनों के ही राग रूप घर को तोड़ कर उन्हें विरक्त करता है ।
.
गोविन्द गिरा सूरज किरण, गुरु दर्पण अति तेज ।
जन रज्जब सुरता वनी, लगे तिहाईत हेज ॥४८ ॥
४८-४९ में गुरु की महिमा कह रहे हैं - भगवद्-वाणी वेद सूर्यकिरण के समान है गुरु दर्पण के समान हैं, जैसे सूर्य किरण का तेज आतशी शीशा में अधिक हो जाता है, वैसे ही गुरु में जा कर भगवद्-वाणी वेद का ज्ञान बल बढ़ जाता है । आतशी शीशा से अग्नि निकल कर जैसे बन को जलाता है, वैसे ही गुरु से ज्ञानाग्नि निकल कर तीसरे श्रवण करने के प्रेम युक्त साधक-भूमि की वृत्ति-वनी में प्रकट होकर उसके अग्यानादि वृक्षों को भस्म करता है ।
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें