#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू जीव जंजालों पड़ गया, उलझ्या नौ मण सूत ।*
*कोई इक सुलझे सावधान, गुरु बाइक अवधूत ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**श्री गुरूदेव का अंग ३**
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देही दरिया नाम सु नाव,
बुधि बादबदान१ विचार सुवाव२ ।
रज्जब किया गुरु सब साज,
इहिं विधि उतरै पार जहाज ॥ ९३ ॥
जीवात्मा ही दरिया है, उसमें देहाध्यादि जल है, ईश्वर का नाम नौका है, बुद्धि ही जहाज स्तम्भ का कपड़ा१ है, विचार ही वायु२ है । इस प्रकार गुरुदेव ने सब साज सजाया है, उक्त जहाज से तथा उक्त विधि से प्राणी संसार - सागर से पार उतरता है ।
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मन समुद्र के बुदबुदे, मनहुँ मनोरथ माँहिं ।
रज्जब गुरु अगस्त१ बिन, कहो गगन क्यों जाँहिं ॥९४॥
समुद्र के बुदबुदे सूर्य१ किरण बिना आकाश को नहीं जाते अर्थात सूर्य किरण से जल सूखता है, तब बुदबुदे नष्ट होते हैं, वैसे ही मन के मनोरथ गुरु उपदेश बिना ब्रह्म में लय नहीं होते ।
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प्राण कीट गुरु भृंग बिन, ब्रह्म कमल क्यों जाय ।
जन रज्जब या युक्तिबिन, विष्टा रहे समाय ॥९५॥
जैसे कीट भृंग बिना कमल पर नहीं जा सकता, भृंग की भृंग बनाने की युक्ति बिना विष्टा में ही पड़ा रहता है । वैसे ही गुरु की उपदेश रूप युक्ति बिना जीव ब्रह्म को प्राप्त ही होता, विषयों में ही फँसा रहता है ।
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रज्जब सद्गुरु बाहिरा, स्वातिन ह्वै शिष आश ।
ज्यों पक्षी पंखौं बिना, कैसे जाय अकाश ॥९६॥
जैसे चातक पक्षी को स्वाति बिन्दु की इच्छा नहीं हो और न पंख हो, तो वह आकाश में कैसे जा सकता है । वैसे ही जो शिष्य गुरु आज्ञा बिना बाहर गमन करता है और न ब्रह्म प्राप्ति की आशा ही रखता है, तब कैसे ब्रह्म को प्राप्त कर सकता है ?
(क्रमशः)
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