शुक्रवार, 16 जून 2017

श्री गुरूदेव का अंग ३(६५-८)

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*मुझ ही मैं मेरा धणी, पड़दा खोलि दिखाइ ।*
*आत्म सौं परमात्मा, प्रकट आण मिलाइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**श्री गुरूदेव का अंग ३**
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त्रिगुण रहित कूँची गुरु, ताला त्रिगुण शरीर ।
जन रज्जब जिव तो खुले, जे योग्य मिले गुरु पीर ॥६५॥
कर्मजन्य त्रिगुणात्मा शरीर ही ताला है, उसमें जीव बन्ध हो रहा है । यदि भाग्यवश कोई गुरुपने की योग्यता से युक्त सिद्ध गुरु मिल जावे और कृपा करके अपना त्रिगुण रहित ज्ञान रूप कूँची लगाकर उक्त ताले को खोल दे तो जीवमुक्त हो जाता है ।
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सदगुरु रहित सकल सौं, सब गुण रहिता बैन ।
रज्जब मानी साखि सो, उस वाइक१ में चैन ॥६६॥
सदगुरु संपूर्ण विकारों से रहित होते हैं, उनके वचन भी त्रिगुण वा संपूर्ण दोष रूप गुणों से रहित होते हैं हमने भी उसी साक्षी को माना है, जो उन गुरुदेव ने कही है । उस अपने स्वरूप को बताने१ वाले गुरुदेव के वचनों में रहने से ही ब्रह्मानन्द प्राप्त होता है ।
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गोपि१ गांठ गात मुर२, खोलें गुरु समरथ्थ ।
रज्जब इन बिन और का, तहाँ न पहुँचे हथ्थ ॥६७॥
तीन१ गुणों की लगी हुई ग्रंथि शरीर में गुप्त२ रूप से स्थित है, जो समर्थ गुरु होते हैं वे ही उसे खोल पाते हैं । इन समर्थ गुरुओं के बिना अन्य का ज्ञान रूप हाथ उस ग्रन्थि के पास नहीं पहुँचता ।
रज्जब बँध्या ब्रह्म का, गुरुदेव छुडावे । 
औरों को यहु गम१ नहीं, कोइ बीच न आवे ॥६८॥
कर्मानुसार ईश्वर द्वारा शरीर में बाँधे हुये जीव को, गुरु ही ज्ञानोपदेश से मुक्त करते हैं । अन्यों को यह विचार१ शक्ति प्राप्त नहीं होती अतः गुरुपने के लक्षणों रहित कोइ भी प्राणी साधकों के बीच गुरु रूप में नहीं आना चाहिए ।
(क्रमशः)

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