卐 सत्यराम सा 卐
*इक लख चन्दा आण घर, सूरज कोटि मिलाय ।*
*दादू गुरु गोविन्द बिन, तो भी तिमिर न जाय ॥*
==========================
**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
.
**श्री गुरूदेव का अंग ३**
.
षट् दर्शन सलित हुँ पड्यूं, आतम लोढी होय ।
सु गुरु राज मूरति गढे, सो वन्दे सब कोय ॥७३॥
जैसे नदियों में पत्थर पड़ जाता है, तब टक्करें खा खा कर लोढ़ी बन जाता है, किन्तु राज के हाथ में जाने से वह उसकी सुन्दर मूर्ति बना देता है, फिर उस मूर्ति को सब नमस्कार करते हैं । वैसे ही जोगी, जगम, सेवड़े, बौद्ध, सन्यासी, और शेख । इन ६ प्रकार के भेषधारियो में जाने से जीवात्मा घर, कुलादि से रहित तो हो जाता है । किन्तु गुरु की शरण जाने से गुरु उपदेश द्वारा उसे ब्रह्म ज्ञानी संत बना देते हैं, फिर उसे सभी वन्दना करते हैं ।
.
देही१ दरिया माँहिं, गुरुदेव बसाई द्वारिका ।
और हुँ होय सु नाँहिं, ना कोई उन सारिखा ॥७४॥
जैसे श्रीकृष्ण ने समुद्र में द्वारिकापुरी बसाई थी । वैसे ही गुरुदेव ने जीवात्मा१ रूप समुद्र में ज्ञान-रूप द्वारिका बसाई है । यह कार्य अन्य से अच्छी प्रकार नहीं हो सकता । कारण - गुरु के समान इस कार्य में निपुण अन्य कोई भी नहीं है ।
.
बाहर बैठे बहिमुर्ख, गुरुमुख भीतर जाय ।
रज्जब रीता क्यों पड़े, खोल खजाना खाय ॥७५॥
गुरु उपदेश से विमुख प्राणी ही तीर्थ व्रतादि बाह्य साधनो में स्थित हैं, किंतु गुरु उपदेश रूप आज्ञा में चलने वाले साधक अन्तमुर्ख वृत्ति द्वारा भीतर जाते हैं और अज्ञान कपाट को खोलकर ज्ञान-निधि के ब्रह्मानन्द पदार्थ का आस्वादन करते हैं । कहिये ऐसे साधको का अन्त:करण ब्रह्मानन्द से वंचित कैसे रह सकता है ?
.
गुरु मुख बासा पिंड में, मन मुख ह्वै ब्रह्मंड ।
रज्जब भीतर भय नहीं, बाहर खंड हु खंड ॥७६॥
गुरु उपदेश रूप आज्ञा में रहने वाले साधकों की वृत्ति का निवास शरीर के भीतर अन्त:करण में रहता है और मनोनुकूल चलने वालों की वृत्ति ब्रह्मांड के विभिन्न पदार्थों पर जाती है । अन्तर्वृत्ति वालों को तो अद्धैतनिष्ठ होने से कोई प्रकार का भय नहीं होता, किन्तु बहिर्वृत्ति वालो की वृत्ति के पदार्थ भेद से नाना खंड होते रहते हैं, और भेद भय का कारण है, यह भी प्रसिद्ध है ।
(क्रमशः)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें