शनिवार, 29 जुलाई 2017

श्री गुरुदेव का अंग ३(१५३-६)


卐 सत्यराम सा 卐 
*कोटि बर्ष लौं राखिये, बंसा चन्दन पास ।*
*दादू गुण लिये रहै, कदे न लागै बास ॥* 
==========================
**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
.
**श्री गुरुदेव का अंग ३**
.
रज्जब नर तरु वित्त१ के, मिल रीते सु अयान । 
मंगलगोटा२ मुख्य फल, मर्कट मुग्ध न जान ॥१५३॥ 
जैसे नारियल२ वृक्ष फल रूप धन१ वाला है तथा उसका फल मंगल द्रव्यों में भी मुख्य है किन्तु मूर्ख वानर उसके फल में रहने वाले खोपरे को नहीं जानता अत: उसके उपभोग से वंचित रह जाता है । वैसे ही सद्गुरु रूप नर ज्ञान-धन से युक्त हैं, वह धन साधन से मुख्य फल मंगल मय ब्रह्म की प्राप्ति का हेतु है, तो भी अज्ञानी प्राणी उनसे मिलकर भी ज्ञान-धन से वंचित ही रह जाता है ।
.
कामधेनु अरु कल्पतरुवर, 
बिना कामना शुभग सरोवर । 
चाह बिना चिंतामणि क्या दे, 
त्यों सेवक स्वामी कने१ क्या ले ॥१५४॥ 
बिना इच्छा करे कामधेनु, कल्पवृक्ष, चिन्तामणि और सुन्दर सुधा-तालाब से कुछ भी प्राप्त नहीं होता । वैसे ही शिष्य रूप सेवक बिना प्रश्न किये गुरु-रूप स्वामी से१ क्या ले सकता है ? 
.
एरंड बंस लागे नहीं, गुरु चन्दन की वास । 
रीते रहे गठीले पोले, रज्जब परिमल पास ॥१५५॥ 
सुगंधयुक्त चन्दन के पास रहने पर रहने पर भी एरण्ड और बाँस गाँठों वाले तथा पोले होने से चन्दन की सुगंध नहीं ग्रहण कर पाते । वैसे ही विवेक हीनता रूप पोल, देहाध्यासादि रूप गाँठे होने से गुरु के पास रहने पर भी साधक गुरु का ज्ञान धारण नहीं कर सकते । 
.
गुरु सिमटे१ गोविन्द भज, शिष सद्गुरु को सेय ।
रज्जब बिझुका२ खेत में, चरे न चरने देय ॥१५६॥
१५६ में योग्य गुरु-शिष्य का परिचय दे रहे हैं - गुरु तो भगवदभजन करके भगवद में स्थित१ होते हैं और शिष्य सेवा करके व्यवस्थित होता है किन्तु जैसे खेत में मृगों को डराने वाला पुतला२ न तो खेत को खाता है और न खाने देता है वैसे ही जो गुरु गोविन्द को न भजता है और न क्रूर स्वभाव के कारण शिष्य को अपनी सेवा ही करने देता है तथा शिष्य भी न गुरु सेवा करता है और न बहिमूर्खता के कारण गुरु को भजन ही करने देता है, वे दोनों ही अयोग्य हैं ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें