रविवार, 30 जुलाई 2017

= १६६ =

卐 सत्यराम सा 卐
*भ्रम विध्वंस*
*ना घर रह्या न वन गया, ना कुछ किया क्लेश ।*
*दादू मन ही मन मिल्या, सतगुरु के उपदेश ॥ ३३ ॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! वे मुक्त - पुरुष, घर कहिए प्रवृत्ति मार्ग और वन कहिए निवृत्ति मार्ग, इन दोनों के अहंकार से रहित होकर और न किसी प्रकार का बहिरंग तप - जप आदि का क्लेश ही उठाया । किन्तु केवल सतगुरु के ज्ञान उपदेश के द्वारा ही व्यष्टि - चैतन्य रूप मन, समष्टि - चैतन्य रूप ब्रह्म से अभेद हो गया ॥ ३३ ॥ 
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*काहे दादू घर रहै, काहे वन - खंड जाइ ।*
*घर वन रहिता राम है, ताही सौं ल्यौ लाइ ॥ ३४ ॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! ब्रह्मवेत्ता संत घऱ और वन, इन दोनों के अहंकार से रहित होकर ब्रह्मस्वरूप राम में लय लगाते हैं । इसी प्रकार उत्तम जिज्ञासु पुरुष, घर और वन का, या प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के अहंकार से रहित होकर आत्मस्वरूप राम में लय लगावें ॥ ३४ ॥ 
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*दादू जिन प्राणी कर जानिया, घर वन एक समान ।*
*घर मांही वन ज्यों रहै, सोई साधु सुजान ॥ ३५ ॥* 
टीका ~ सतगुरु महाराज कहते हैं कि जिन जिज्ञासुओं ने घर और वन इन दोनों को विचार द्वारा बराबर जानकर, अर्थात् घर कहिए प्रवृत्ति मार्ग और वन कहिए निवृत्ति मार्ग, इन दोनों के अहंकार को त्यागकर घर में ही, कहिए प्रवृत्ति मार्ग में ही, ज्ञान द्वारा निवृत्ति कहिये अनासक्त होकर, राम से लय लगाते हैं, वही पुरुष सुजान नाम चतुर हैं ॥ ३५ ॥ 
*(श्री दादूवाणी ~ मध्य का अंग)*

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