रविवार, 30 जुलाई 2017

= १६५ =

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू कौवा बोहित बैस कर, मंझि समंदाँ जाइ ।*
*उड़ि उड़ि थाका देख तब, निश्चल बैठा आइ ॥ १८ ॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कौवा रूपी मन सत्संग रूपी "बोहित", कहिए जहाज में बैठ कर, एकाग्र होकर, समुद्र रूप ब्रह्म में संलग्न होता है । तब श्रवण, मनन, निदिध्यासन, विवेक, वैराग्य आदिक साधनों द्वारा माया में निर्मल होकर परमेश्वर का प्रत्यक्ष परिचय करके स्वस्वरूप में लीन होता है ॥ १८ ॥
मन कौवा निश्चल भया, सत संगति बोहित पाइ ।
जगन्नाथ जग सार नहिं, नांव बिड़द पर आइ ॥
त्रिभंगी छंद
जोये मन कागा, उड़ उड़ भागा, 
विषिया लागा, अनुरागा ।
तन लाया दागा, मती अभागा, 
कबहुँ न जागा, सुख सागा ॥
बोहिथ सतसंगा, लागै रंगा, 
तजै कुसंगा, नाम धरी ।
ये सुमिरण गंगा, नहाइ विहंगा, 
ध्याय सुरंगा, दास हरी ॥
*(श्री दादूवाणी ~ मन का अंग)*
चित्र सौजन्य ~ Nd Sonii

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