रविवार, 30 जुलाई 2017

श्री गुरुदेव का अंग ३(१५७-६०)


卐 सत्यराम सा 卐
*दादू माहैं मीठा हेत करि, ऊपर कड़वा राख ।*
*सतगुरु सिष कौं सीख दे, सब साधों की साख ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
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**श्री गुरुदेव का अंग ३**
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देह हिं दीक्षा देत हैं, दिल दीक्षा कोई नाँहिं ।
रज्जब सद्गुरु सो सही, जो दीक्षा दे दिल माँहिं ॥१५७ ॥
१५७-१५९ में योग्य और अयोग्य गुरु का परिचय दे रहे हैं - देह को तो माला, तिलक, गेरूआ वस्त्रादि भेष रूप दीक्षा देते हैं किन्तु अन्त:करण को सुधारना रूप दीक्षा नहीं देते वे अयोग्य गुरु हैं और जो अन्त:करण को सुधारना रूप दीक्षा देते हैं वे ही योग्य सद्गुरु कहे जाते हैं ।
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जीव ब्रह्म सौं जो गुरु बाणें१, सो गुरु लेय दलाली ।
रज्जब कैसी गुरु दक्षिणा, जे शिष का दिल खाली ॥१५८॥
जो गुरु जीव का ब्रह्म से मिलन रूप बानक बनादे१ अर्थात जीव-ब्रह्म का भेद दूर करदे वही गुरु रूप दलाल योग्य है तथा सेवा रूप दलाली लेने का अधिकारी है और जिस गुरु से शिष्य का अन्त:करण भक्ति, वैराग्य, ज्ञानादि से भी नहीं भरा जा सका, खाली ही पड़ा है, उसको कैसी गुरु-दक्षिणा दी जाय अर्थात वह अयोग्य गुरु है, अत: गुरुदक्षिणा का अधिकारी नहीं है ।
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पर कारज किरपण करै, अपने काम उदार ।
जन रज्जब गुरु स्वारथी, शिष सब किये ख्वार ॥१५९॥
१५९ में अयोग्य गुरु का परिचय दे रहे हैं - अन्य संतों की सेवा के अवसर पर तो अपने भक्तों को कृपणता का उपदेश करता है अर्थात कहता है इन्हें कोई आवश्यकता नहीं है और अपना कार्य करने के लिये उदार बनने का उपदेश करता है । ऐसा गुरु पूरा स्वार्थी होता है और अपने सब भक्तों के अन्त:करण को खराब कर देता है ।
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चुणे चुटायुँ१ ऊँचो गुणैं२, खूंटयूं३ व्है खलु४ हान ।
यूं रज्जब शिष नीपजे, गुरु ज्ञाता पहचान ॥१६० ॥ 
१६० में योग्य गुरु का परिचय दे रहे हैं - चणे के खेत को फाल आने से पूर्व थोड़ा-थोड़ा ऊपर से तुड़ाने१ से अच्छा समझा२ जाता है, कारण - उसमें अधिक शाखायें निकल कर फल अधिक आता है किन्तु उखाड़३ देने से तो निश्चय४ हानि होती है । वैसे ही ज्ञानी गुरु को जानो, वे अपने शिष्यों से थोड़ी थोड़ी सेवा लेते हैं तब शिष्यों का मन बढ़ता रहता है और उनकी शक्ति के बाहर दबाव डालने से तो हानि ही होती है । उक्त रीति से ही ज्ञानी गुरुओं के शिष्य श्रेष्ठ बनते हैं । अत: ऐसे व्यवहार वाले गुरु ही योग्य गुरु कहलाते हैं । 
(क्रमशः)

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