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卐 सत्यराम सा 卐
*पर उपकारी संत सब, आये इहि कलि मांहि ।*
*पीवैं पिलावैं राम रस, आप सवारथ नांहि ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**गुरु-शिष्य निदान निर्णय का अंग ५**
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लोह शिष्य पारस गुरु, मेले मेलनहार ।
सौंधे सौं मँहगे भये, अनवांछित व्यवहार ॥१३॥
जैसे लोहे से पारस से कुछ भी नहीं चाहता किन्तु फिर भी स्पर्श होते ही पारस लोहे को सुवर्ण बना देता है और लोह सौंधे से मँहगा हो जाता है, वैसे ही मिलने वाले भगवान गुरु-शिष्य का मेल बिना ही इच्छा मिला देते हैं और गुरु के निस्पृह व्यवहार युक्त उपदेश से शिष्य महान् बन जाता है ।
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महन्त मयंक उदीप१ तौं, देखे सब संसार ।
रज्जब रार्यों२ रस परै, उन हि न आँखों प्यार ॥१४॥
चन्द्रमा का प्रकाश१ बढ़ते ही सब संसार उसे देखता है और उसके शीतल प्रकाश से आँखों२ को आनन्द प्राप्त होता है किन्तु चन्द्रमा का तो आँखों से प्रेम नहीं है, वैसे ही गुरु रूप महन्त की महिमा सब संसार देखता है जिज्ञासुओं को आनन्द प्राप्त होता है किन्तु गुरु का कोई स्वार्थ नहीं है ।
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सद्गुरु सलिता ज्यों बहै, हित१ हरि सागर माँहिं ।
रज्जब समदी२ सेवका, सहज संग मिल जाँहिं ॥१५॥
जैसे बड़ी नदी सागर से मिलकर भी मिलने के लिये बहती है और उसके संग मिलकर छोटे नाले भी समुद्र में पहुँच जाते हैं, वैसे ही सद्गुरु हरि में मिलकर भी मिलने के साधन उपदेशादि करते ही रहते हैं और ईश्वर की भक्ति करने वाले सेवक भी उनके संग से सहज ही ईश्वर से मिल जाते हैं ।
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रज्जब काया काठ में, प्रकटी आज्ञा आग ।
मन शिष निकस्या धूम ज्यों, गया गगन गुरु लाग ॥१६॥
१६-२६ में गुरु की विशेषता बता रहे हैं - काष्ठ में अग्नि प्रगट होता है तब धूआँ आकाश में जाकर लय हो जाती है, वैसे ही गुरु की उपदेश रूप आज्ञा से ज्ञान प्रगट होता है तब शिष्य का मन शरीराध्यास से निकल कर समाधि में जाता है और ब्रह्म में लय होता हैं ।
(क्रमशः)
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