शुक्रवार, 18 अगस्त 2017

गुरु-शिष्य निदान निर्णय का अंग ५(२१-४)

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
*काया कबज कमान कर, सार शब्द कर तीर ।* 
*दादू यहु सर सांध कर, मारै मोटे मीर ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
**गुरु-शिष्य निदान निर्णय का अंग ५** 
काँसी कणजा१ काच लग, बधैं तताई२ माहिं । 
जन रज्जब शीतल समय, अस्थल छोड़ै नाँहिं ॥२१॥ 
काँसी लाख१ काच यह गर्म२ ही बढ़ते हैं, शीतल होने पर नहीं बढ़ते टूट जाते हैं । वैसे ही शिष्य भी साधन में लग कर साधन संताप से ही ब्रह्म की ओर बढ़ते हैं, साधन न करने से देहाध्यासादिरूप स्थान को नहीं त्यागते, मर ही जाते हैं । जीव जल हिमगिरि होत है, शक्ति शीत के संग । 
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सो पाषाण पानी भया, गुरु ग्रीष्म के अंग ॥२२॥ 
जैसे शीत से जल हिमालय पर हिम बन जाता है और ग्रीष्म ऋतु में पुन: जल हो जाता है, वैसे ही माया के सम्पर्क से जीव संसारी बन जाता है और गुरु के संग से पुन: ज्ञानी होकर परब्रह्म को प्राप्त हो जाता है । 
ज्यों श्रावण सीगणि१ फिर हि, त्यों शठ सुरति संसार । 
रज्जब सूधी होय सो, कमणीगर गुरु द्वार ॥२३॥ 
श्रावण में वर्षा की आर्द्रता से धनुष१ का काष्ठ कुछ टेढा होता है, फिर आश्विन मास में कमान बनाने वाला कमणीगर उसे सीधा कर देता है, वैसे ही मूर्ख प्राणी की वृत्ति संसार में काम क्रोधाधि विकार रूप वक्रता को प्राप्त होती है, तब गुरु द्वारा ही सीधी की जाती है । 
हाथा जोडी गुरु हुं सूं, मूसल मन सु मिलाँहि ।
ये इकठे ये ही कर हिं, और हुँ किये न जाँहिं ॥२४॥ 
धान कूटते समय मूसल दोनों हाथों को मिला देता है, वैसे ही गुरु भिन्न विचारधारा के दो व्यक्तियों के मन विचार साम्यता द्वारा मिला देते हैं वा मन को ईश्वर में जोड देते हैं, दोनों हाथों को मन ईश्वर को जैसे मूसल और गुरु मिलाते हैं वैसे अन्य कोई भी नहीं मिला सकता । 
(क्रमशः)

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