रविवार, 6 अगस्त 2017

गुरु-शिष्य निगुर्ण का अंग ४(५-८)

#daduji


卐 सत्यराम सा 卐
*गरु अपंग पग पंष बिन, शिष शाखा का भार ।
दादू खेवट नाव बिन, क्यूँ उतरेंगे पार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
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**गुरु-शिष्य निगुर्ण का अंग ४**
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रज्जब चेला चक्षु बिन, गुरु मिल्या जाचंध१ ।
कूप मयी यहु कुंभिनी२, क्यों पावें प्रभु पंध३ ॥५॥
जैसे कोई नेत्रहीन मनुष्य आवाज देकर के कहे - कोई मुझे अमुक ग्राम पहुँचा दे तो उसे अमुक पुरस्कार दूंगा । उसे कोई जन्मांध१ कहे - चल मैं पहँचा दूंगा, तो वे दोंनों मार्ग छूट जाने से कूप में ही पड़ेंगे । वैसे ही ज्ञानहीन स्वार्थी शिष्य-गुरु मिल जाते हैं तब उनके लिये यह संपूर्ण पृथ्वी२ ही कूप रूप है अर्थात वे दोनों संसार कूप में ही पड़ते हैं, परब्रह्म प्राप्ति का मार्ग३ उन्हें नहीं मिलता ।
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गुरु के अंग१ हुं गुरु नहीं, शिष्य न ले ही सीख ।
रज्जब सौदा ना बण्याँ, पेट भरहु कर भीख ॥६॥
गुरु के लक्षण१ गुरु में नहीं है और शिष्य भी शिक्षा धारण नहीं करता, तब परब्रह्म प्राप्ति रूप व्यापार तो बनता नहीं, केवल भिक्षा करके पेट भरने का मार्ग खुल जाता है ।
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रज्जब राम न रहम कर, अक्षर लिखे न भाल ।
ताथें सद्गुरु ना मिल्या, गुरु शिष रहे कंगाल ॥७॥
राम के दया न करने से विधाता ने मुक्ति प्राप्ति के अंक ललाट में नहीं लिखे अर्थात गुरु प्राप्त होने का प्रारब्ध नहीं बना, इसी से सद्गुरु नहीं मिले । सद्गुरु के अभाव से गुरु और शिष्य दोनों ही आत्म ज्ञान न होने से सांसारिक आशाओं द्वारा कंगाल ही रहे । 
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गुरु घर धन ह्वै पाइये, शिष्य सुलक्षण ले हि ।
उभय अभागी एकठे, कहा लेय कहा देहि ॥८॥
गुरु के अन्त:करण रूप घर में ज्ञान-धन हो तो शिष्य को प्राप्त हो और शिष्य भी शिष्यपने के सुन्दर लक्षणों से युक्त हो तो ज्ञान-धन ले सके किन्तु जब दोनों ही भाग्यहीन मिल जायँ तब गुरु क्या दे और शिष्य क्या ले ।
(क्रमशः)

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