गुरुवार, 24 अगस्त 2017

गुरु-शिष्य निदान निर्णय का अंग ५(४१-४)

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卐 सत्यराम सा 卐
*दुर्लभ दर्शन साध का, दुर्लभ गुरु उपदेश ।*
*दुर्लभ करबा कठिन है, दुर्लभ परस अलेख ॥*
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**गुरु-शिष्य निदान निर्णय का अंग ५**
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सहगुण निर्गुण गुरु गरट१, गाहक शिषौं अनेक ।
रज्जब गुरु गोविन्द ले, सो चेला कोई एक ॥४१॥
सगुण निर्गुण उपासना बताने वाले गुरुओं के समूह१ के समूह मिलते हैं और उपदेश ग्रहण करने वाले शिष्यों के भी अनेक समूह मिलते हैं किन्तु जो सच्चे गुरु को प्राप्त करके गोविन्द को प्राप्त कर सके वह शिष्य कोई विरला ही होता है ।
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विधु१ विलोकि बहु लक्षणा, गाहक गुण हु अपार ।
पै रज्जब सुधा चकोर ले, जिहिं बल गिले अँगार ॥४२॥ 
देखो, चन्द्रमा१ में बहुत से शुभ लक्षण रूप गुण हैं और उसको ग्रहण करने वाले भी अनन्त हैं, किन्तु जिसके बल से अग्नि के अंगारे भी खाये जा सकते हैं, उस अमृत को तो चकोर पक्षी ही लेता है । वैसे ही सद्गुरु में बहुत से गुण होते हैं और उसको ग्रहण करने वाले भी अनन्त होते हैं किन्तु जिसके बल से अज्ञान नष्ट होता है, उस ब्रह्म ज्ञान को तो कोई सच्चा शिष्य ही लेता है । 
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चंद्र चकोर हिं प्रिति हैं, देखे सब संसार । 
वह सौदा औरै कछू, जहिं बल गिले अँगार ॥४३॥
चन्द्रमा में चकोर पक्षी का प्रेम है, यह सभी संसार के प्राणी देखते हैं, किन्तु जिसके बल से चकोर अग्नि के अंगारे भी खा जाता है, वह व्यापार तो प्रेम से विलक्षण अमृत पान ही है । वैसे ही शिष्यों का प्रेम गुरु में होता है ही किन्तु जिस ज्ञान के बल से अज्ञान नष्ट होता है, उस ज्ञान को धारण करना रूप व्यापार तो भिन्न ही होता है । जिसमें वह होता है, वही सच्चा शिष्य है ।
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रज्जब महन्त मयंक के, चेला होय चकोर ।
इन्द्रिय गिले अँगार ज्यों, अग्नि करे नहिं जोर ॥४४ ॥
चन्द्रमा का सच्चा प्रेमी चकोर पक्षी होता है, वही अपनी साधना से चन्द्रामृत को पान करता है जिसके बल से अंगारे भी खा जाता है, अग्नि उस पर अपनी शक्ति का कुछ भी प्रयोग नहीं करता । वैसे ही महान गुरु का सच्चा शिष्य होता है वह अजेय इन्द्रियों को भी जीत लेता है । उस पर इन्द्रियाँ अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकती हैं ।
(क्रमशः)

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