बुधवार, 20 सितंबर 2017

= साँच का अंग =(१३/१२४-६)

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*साँच का अंग १३* 
दादू जिन कंकर पत्थर सेविया, सो अपना मूलगंवाइ ।
अलख देव अंतर बसे, क्या दूजी जगह जाइ ॥१२२॥
१२४ - १२६ में मायिक पदार्थों को ईश्वर मान कर उपासना करने से ब्रह्म प्राप्ति नहीं होती, जिन्होंने कंकर पत्थरों की ही उपासना की है, उन्होंने लाभ की आशा से अपना मूलधन मनुष्य - जीवन भी खो दिया है । हे प्राणी ! मन इन्द्रियों के अविषय परमात्मा देव तो तेरे हृदय में ही बसते हैं, फिर अन्य स्थानों में भटकने से क्या लाभ है ?
पत्थर पीवे धोइ कर, पत्थर पूजे प्राण ।
अन्तकाल पत्थर भये, बहु बूडे इहि ज्ञान ॥१२३॥
जो प्राणी पत्थर को धोकर पान करते हैं और पत्थर को ही पूजते हैं, वे इस शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार - "ध्याता ध्येय के रूप को ही प्राप्त होता है" अन्त में पत्थर - भाव को ही प्राप्त होते हैं । पत्थर को ही परब्रह्म मानने के ज्ञान से बहुत - से अज्ञानी सँसार - सिन्धु में डूबे हैं ।
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कंकर बँध्या गाँठड़ी, हीरे के विश्वास ।
अंतकाल हरि जौहरी, दादू सूत कपास ॥१२४॥
जैसे कोई कंकर को हीरा मानकर, अपनी गठरी में बांध तो ले किन्तु जौहरी के पास वह हीरा सिद्ध न होगा । वैसे ही कोई पत्थर को परमात्मा मान ले, किन्तु अन्त में परमात्मा के स्वरूप को पहचानने वाले सँतों के पास वह परमात्मा सिद्ध न होगा । कपास का काता हुआ सूत कपास ही रहेगा । वैसे ही पत्थर का माना हुआ परमात्मा पत्थर ही रहेगा । 
(क्रमशः)

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