बुधवार, 20 सितंबर 2017

आज्ञाकारी आज्ञा भंगी का अंग ७(१७-९)

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卐 सत्यराम सा 卐
*अमर भये गुरु ज्ञान सौं, केते इहि कलि माहिं ।*
*दादू गुरु के ज्ञान बिन, केते मरि मरि जाहिं ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**आज्ञाकारी आज्ञा भंगी का अंग ७**
सीता सुरति उलंधिया, राम लीक गुरु बैन । 
रज्जब रावण काल कर, चढ़या न पावे चैन ॥१७॥ 
१७-१८ में आज्ञा भंगियों के उदाहरण कह रहे हैं - सीता ने राम के भाई लक्ष्मण की लीक का उलंधन किया तब रावण के हाथ में आकर कष्ट उठाया । वैसे ही शिष्य की वृत्ति गुरु के वचनों को उलंधन करती है तब शिष्य काल के हाथ में आकर व्यथित होता है । 
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रज्जब रजा१ रजानिकर२, आजाजील शैतान । 
हुआ फजीहत फरिश्ता३, मेट अलह फरमान ॥१८॥ 
ईश्वर ने आदि मानव आदम को रचकर अप्सराओं तथा फरिश्ताओं को कहा, इसे प्रणाम करो, अन्य सबने तो आदम को प्रणाम किया किन्तु शैतान अजालील ने ईश्वर की यह आज्ञा१ नहीं मानी । इस ईश्वर के हुक्म को न मानने२ से ही उस ईश्वर दूत३ को बेइज्जत पूर्वक फरिश्ताओं से निकाल दिया गया । बड़ों की आज्ञा न मानने से ऐसा ही होता है । अत: गुरुजनों की आज्ञा अवश्य माननी चाहिये । यह कथा छप्पय ग्रंथ के आज्ञा भंग अंग १५ छप्पय एक की टीका में विश्तार से है । 
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रज्जब गुरु गोविन्द की, मया१ मेघ प्रतिपाल । 
इन बिरच्यूं२ राचे३ विघन, केवल आतम काल ॥१९॥ 
१९ में आज्ञा मानने, न मानने का लाभालाभ दिखा रहे हैं - और गोविन्द की कृपा१ रूप मेध से पालन होता है । इन दोनों में उपराम२ होने से केवल विध्न ही होते३ हैं और जीवात्मा को यम-यातना भोगनी पड़ती है । अत: सदा गुरु और गोविन्द की आज्ञा में ही रहना चाहिये । 
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित आज्ञाकारी आज्ञा भंगी का अंग ७ समाप्त ॥सा. ३११॥ 
(क्रमशः)

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