शुक्रवार, 29 सितंबर 2017

आज्ञाकारी का अंग ८(२५-२८)

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卐 सत्यराम सा 卐
*तुम हीं तातं तुम ही मातं,* 
*तुम ही जातं, तुम्ह ही न्यातं ॥*
*कुल कुटुम्ब तूँ सब परिवारा,* 
*दादू का तूँ तारणहारा ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**आज्ञाकारी का अंग ८** 
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गुरु सन्मुख शिष रह सदा, कदे करो मत और ।
ज्यों रज्जब वसुधा विरछ१, सुखी दुखी इक ठौर ॥२५॥
२५-२६ में शिष्य को गुरु आज्ञा में रहने की प्रेरणा कर रहे हैं - वृक्ष१ वर्षा से सुखी और आतप से दुखी होने पर भी पृथ्वी में एक स्थान पर ही रहता है, उखडने से तो नष्ट ही होगा । वैसे ही शिष्य को सदा गुरु की आज्ञा में ही रहना चाहिये । गुरु आज्ञा से विमुख होने का उपदेश कभी भी कोई न करे, कारण-गुरु से विमुख होते ही परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है ।
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ज्यों सद्गुरु के शब्द में, त्यों चल शिष्य सुजान ।
जन रज्जब रहु इस मतै१, छाडहु खैंचातान ॥२६॥
हे बुद्धिमान शिष्य ! जैसे सद्गुरु के उपदेश रूप शब्दों में चलने का विधान है, वैसे ही चल, इस सद्गुरु आज्ञा रूप सिद्धान्त१ में ही स्थित रह, अन्य मत मतान्तरों की खैंचातान को छोड़ दे ।
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हीरा हेम१ सोई खरे, जो लागे भाणे२ भित्त३ ।
रज्जब चहुँटे गुरु शब्द, सो चेला चोखे चित्त ॥२७ ॥
२७ में सुमति शिष्य का परिचय दे रहे हैं - हीरा और स्वर्ण१ वही अच्छा माना जाता है जिसके पीठ३ पर तोड़ने के समान चोट२ लगे और वे परस्पर चिपकते जावें(स्वर्ण के भूषण में हीरा बैठाया जाता है, तब जिसमें बैठाया जाता है उस स्थान की दीवाल के और हीरा के थोडी थोडी चोट मारी जाती है, जिससे वह हीरा भूषण में दब कर स्थिर हो जाता है) वैसे ही जो साधन कष्ट देने पर भी गुरु के शब्दों के विचार में लगा रहे, वही शिष्य अच्छे हृदय का माना जाता है ।
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गुरु आज्ञा इन्द्रिय दमन, आज्ञा परिहर काम ।
रज्जब आज्ञा आप१ हत, आज्ञा भजिये राम ॥२८॥
२८-२९ में गुरु आज्ञा पालन की प्रेरणा कर रहे हैं - गुरु आज्ञानुसार साधन करके इन्द्रियों को जय करो, काम को त्यागो, अपने मिथ्या अहंकार१ को नष्ट करो और राम का भजन करो ।
(क्रमशः)

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