卐 सत्यराम सा 卐
*सीप सुधा रस ले रहै, पीवै न खारा नीर ।*
*मांहैं मोती नीपजै, दादू बंद शरीर ॥*
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जो चुनेगा, वह उलझ जायेगा संसार में। मनुष्य चुने ही न। सुख आये तो सुख से राजी हो जाये। दुःख आये तो दुःख से राजी हो जाये। लेकिन भीतर चुनाव न करे कि मैं ये चाहता हूं। इसे अन्तस् की गहराइयों में उतर जाने दें।
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इस जगत से जो कुछ भी नहीं मांगता, वह जगत में कभी नहीं उलझेगा। इस जगत से कुछ भी मांगा, कि मनुष्य उलझा। मनुष्य जो मांगता है,वह मिल जाये तो भी फंस गया;जो चाहता है वह न मिले, तो भी फंस गया। मांगते ही फंस गया, मिलने न मिलने से कोई सम्बन्ध नहीं है।
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मछुए कांटे में आटा लगा कर नदी में डाल रखते हैं। इनसे केवल वही मछली बचेगी, जो मुंह खोलेगी ही नहीं। जिस मछली ने मुंह खोला, वह फंसी। सभी मछलियां आटे के लिए मुंह खोलती हैं, कोई मछली इतनी नासमझ नहीं कि कांटे के लिए मुंह खोले। सभी मछलियां आटे के लिए मुंह खोलती हैं। मछुआ भी इसीलिये कांटे में आटा लगा कर नदीं में डाल कर बैठता है। मछली फंसती ही है आटे के कारण। सभी मनुष्य सुख चाहते हैं और दुःख का कांटा सुख से निकल आता है। सभी चाहते हैं सम्मान और सम्मान में से ही अपमान का कांटा निकल आता है।
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उस मछली का ख्याल करें जो इस आटे और कांटे में से चुनाव ही नहीं करती; उदासीन इस आटे के पास से तैरती हुयी चली जाती है, इसे पकड़ पाना असम्भव है। ऐसी मछली की तरह मनुष्य यदि हो जाये इस जगत में कि जो कुछ चुनता ही नहीं, कोई मांग नहीं करता। फिर उसके ऊपर कोई बंधन हो नहीं सकता, वह पकड़ा नहीं जा सकता।

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