卐 सत्यराम सा 卐
*मीठे का सब मीठा लागै, भावै विष भर देइ ।*
*दादू कड़वा ना कहै, अमृत कर कर लेइ ॥*
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com
*'हे निर्दोष ! समाधिनिष्ठ होकर विकल्पों से शून्य बन।'*
*विकल्पों से शून्य हो जाने पर ही समाधि घटित होती है।*
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चुनाव कभी भी द्वन्द के बाहर नहीं ले जा सकता। चुनने का अर्थ ही है कि मनुष्य ने किसी की तुलना में चुना है। जिसकी तुलना में चुना गया है,वह पीछा करेगा। जिसको चुना और जिसको नहीं चुना, वह दोनों संयुक्त हैं। जिसे नहीं चुना, वह जायेगा कहां? वह साथ ही रहेगा। लोगों का साथ हो, परिवार हो, दुकान हो, बाजार हो; वह जो भीतर छिपा है, कोई जरा भी इशारा कर दे तो बाहर निकल आता है।
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मनुष्य जब समझ लेता है कि चुनाव में ही संसार है, और चुनना छोड़ देता है; तब जो भी होता है उसे स्वीकार कर लेता है। जो नहीं होता, उसकी अपेक्षा नहीं करता। अस्तित्व जैसे भी रखे। दुःख आये, स्वीकार है। यही है, यही होना चाहिए जो हो रहा है। सुख आये, तो स्वीकार है। यही है, यही होना चाहिए जो हो रहा है। अब कोई अपेक्षा, कोई मांग, कोई दावा नहीं है।
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जिस क्षण मनुष्य दावा छोड़ देता है, फिर उस मनुष्य पर इस जगत में कोई बंधन नहीं रह जाता। यदि ये सारा जगत भी जंजीरें बन जाये और मनुष्य के अंग-2 को बांध लें; तब भी मनुष्य पर कोई बंधन नहीं होता। क्योंकि मनुष्य उसको भी स्वीकार कर लेता है कि ये ही होना था। दुःख दुःख है, क्योंकि मनुष्य दुःख को नहीं चाहता और सुख को चाहता है। नहीं तो फिर कैसा दुःख? अशांति क्या? क्योंकि मनुष्य शांति चाहता है। मनुष्य के चुनाव में ही उसका संसार है।

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