सोमवार, 25 सितंबर 2017

आज्ञाकारी का अंग ८(१३-१६)

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卐 सत्यराम सा 卐
*आज्ञा मांही बाहर भीतर, आज्ञा रहै समाइ ।*
*आज्ञा मांही तन मन राखै, दादू रहै ल्यौ लाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**आज्ञाकारी का अंग ८** 
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आज्ञा में ऊभा रहै, एक मना इकतार ।
रज्जब उज्वल अनन्य ह्वै, वह उतरेगा पार ॥१३॥
जिसका हृदय उज्वल है और जो एक मन से सदा गुरु-गोविन्द की आज्ञा में ही खड़ा रहता है, वह अनन्य दशा को प्राप्त होकर संसार-सागर से अवश्य पार हो जायगा ।
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आज्ञा में अघ ऊतरैं, आज्ञा पावन प्राण ।
सो आज्ञा आठों पहर, जन रज्जब उर आन ॥१४॥
गुरु-गोविन्द की आज्ञा में चलने से पाप नष्ट हो जाते हैं, प्राणी पवित्र हो जाता है, उस गुरु-गोविन्द की आज्ञा को अष्ट पहर हृदय में रखना चाहिये ।
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आज्ञा में ऊंची दशा, आज्ञा उत्तम ठौर ।
उभय एक आज्ञा चल्यों, सो आज्ञा शिर मौर ॥१५॥
गुरु-गोविन्द की आज्ञा में चलने में उच्च अवस्था और उत्तम स्थान प्राप्त होता है, जीव-ब्रह्म दोनों एक हो जाते हैं । यह आज्ञा पालन रूप साधन सभी साधनों में शिरोमुकुट के समान है ।
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शिष श्रद्धा यों चाहिये, ज्यों वसुधा रतिवन्त ।
रज्जब वर्षा गुरु वयन, लिया दशों दिश कन्त ॥१६॥
१६-१७ में शिष्य को प्रेरणा कर रहै हैं - जैसे पृथ्वी की श्रद्धा इन्द्र में होती है तब वर्षा रूप से पृथ्वी अपने स्वामी इन्द्र को प्राप्त करती है । वैसे ही शिष्य की श्रद्धा गुरु वचनों में होनी चाहिये तभी तभी दशों दिशा में परमात्मा का साक्षात्कार होता है ।
(क्रमशः)

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