गुरुवार, 28 सितंबर 2017

आज्ञाकारी का अंग ८(२१-२४)

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐 
*सेवक बिसरै आप कौं, सेवा बिसरि न जाइ ।*
*दादू पूछै राम कौं, सो तत्त कहि समझाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
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**आज्ञाकारी का अंग ८** 
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अमलबेत सूई मिल एकै, त्यों शिष सद्गुरु संग ।
रज्जब द्वितीय भाव न दर्शे, अंग१ समाये अंग२ ॥२१॥
अमलवेत वृक्ष का फल बहुत खट्टा होता है । उसमें सूई रख देने से सूई गल कर उसी में मिल जाती है, वैसे ही शिष्य को सद्गुरु का संग मिल जाने पर शिष्य के हृदय में द्वैत भाव नहीं दिखाई देता, उसकाआत्मा सद्गुरु आत्मा१ के लक्ष्य स्वरूप ब्रह्म२ में समा जाता है । 
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आदि तिणैं१ रस नीपजी, अंत तिणा२ दिल माँही ।
रज्जब शिष सितिया३ मतै, गुरु गुण लोपे नाँहिं ॥२२॥
मिश्री३ प्रथम ईख१ के रस से उत्पन्न हुई और अन्त में भी बाँस की सीक२ को अपने बीच में रक्खा अर्थात मिश्री तैयार होने पर भी उसके बीच में बाँस की सींक रही (जैसे आजकल धागा बीच में रखकर मिश्री बनाते हैं, वैसे ही पूर्व काल में बाँस की सींकों पर बनाई जाती थी) इतनी श्रेष्ठ बनकर भी मिश्री ने तृण का उपकार नहीं भूला, वैसे ही सुमति शिष्य कितना ही श्रेष्ठ हो जाने पर गुरु के उपकार रूप गुणों को मन से नहीं भूलता ।
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मिश्री मन विसरु नहीं, आदू जो उपकार ।
मीठों सौं मीठी भई, तेउ१ तिण उरधार ॥२३॥
मिश्री ने अपने ऊपर किया हुआ ईख रूप तृण का उपकार नहीं भूला, वह उन मधुर गन्नों से भी अधिक मधुर हो गई किन्तु तो भी१ बाँस की सींक रूप तृण को अपने बीच में ही रक्खा । वैसे ही सुमति शिष्य गुरु से योग्यता में अत्याधिक बढ़ जाये तो भी गुरु का उपकार नहीं भूलता ।
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गुरु बूंद शिष समुद्र का, मिलत महातम जोय ।
परफुल्लित सायर१ सुगुण, उठत बुदबुदे होय ॥२४॥
२४ में गुरु शिष्य मिलन-माहात्म्य बता रहे हैं - जब बिन्दु समुद्र से मिलती है तब समुद्र प्रसन्न होता है, इसी से समुद्र१ में बुदबुदे उठते हैं । वैसे ही जब शिष्य को गुरु मिलते हैं, तब शिष्य में सुन्दर गुण उत्पन्न होते हैं । यही गुरु और शिष्य के मिलन का माहात्म्य है ।
(क्रमशः)

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