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卐 सत्यराम सा 卐
*चंचल चहुँ दिसि जात है, गुरु बाइक सूँ बंधि ।*
*दादू संगति साध की, पारब्रह्म सौं संधि ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**आज्ञाकारी का अंग ८**
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चेला चेतन चाहिये, ज्यों अक्षर१ शब्द हि लेय ।
रज्जब शिष श्रद्धा यही, गुरु मत जान न देय ॥१७॥
शिष्य को गुरु-वचन ग्रहण करने में इस प्रकार सावधान रहना चाहिये, जिस प्रकार अक्षरों को ग्रहण करने में शब्द रहता है । शब्द में एक मात्रा की कमी हो तो भी अखरती है । वैसे ही शिष्य को भी अपनी कमी अखरना चाहिये वा जैसे भी शब्दों द्वारा अविनाशी१ ब्रह्म का स्वरूप समझ सके वैसे ही शिष्य को सावधान रहना चाहिये । शिष्य की उत्तम श्रद्धा की यही पहचान है कि वह गुरु के सिद्धांत को अपने हृदय से नहीं जाने दे ।
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बावन अक्षर सेवका, सद्गुरु शब्द समान ।
रज्जब दुहुँ सों एक व्है, सो गुरु शिष्य प्रमान ॥१८॥
१८ में गुरु-शिष्य की प्रमाणिकता बता रहे हैं - जैसे वर्णमाला के बावन अक्षर और शब्द मिलाकर एक हो जाते हैं । वैसे ही गुरु और शिष्य दोनों मिलने पर ब्रह्म रूप में एक हो जावें वे ही गुरु-शिष्य प्रामाणिक हैं ।
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शिष श्रद्धा जंतर घटी, सद्गुरु जंत्रक जान ।
रज्जब रहिये कंध चढ़, सकल कला उर ठान ॥१९॥
शिष्य की श्रद्धा सितार घटिका के समान है और गुरु गुरु सितार बजाने वाले के समान हैं । सितार आदि वाद्यों की तुम्बी जो उनके ऊपर होती है, वह जब बजाने वाले के कंधे पर जाकर वहां ठहरती है तब गायन सम्बन्धि सभी कलायें उससे निकलती हैं । वैसे ही शिष्य की श्रद्धा जब गुरु में होती है, तब उसके हृदय में सभी अध्यात्म विषय अवगत हो जाते हैं ।
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तेल लौण आफु१ रु गुड़, पय२ पाणी सौं मेल ।
त्यों रज्जब गुरु ज्ञान में, शिष्य सुमति का खेल ॥२०॥
२०-२३ में सुमति शिष्य का परिचय दे रहे हैं - जैसे एक ही जल के मेल से तिल में तेल, भूमि में लवण, अफीम१ के डोडे में अफीम, ईख में गुड़ और दूध वाले वृक्षों में दूध२ होता है । वैसे ही एक गुरु के उपदेश से अनेक प्रकार के शिष्य तैयार होते हैं किन्तु ब्रह्म-प्राप्ति रूप खेल का आनन्द किसी सुमति शिष्य को ही प्राप्त होता है, सब को नहीं ।
(क्रमशः)

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