卐 सत्यराम सा 卐
*दादू सेवक सो भला, सेवै तन मन लाइ ।*
*दादू साहिब छाड़ कर, काहू संग न जाइ ॥*
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साभार ~ Krishnacharandas Aurobindo
God plays लुकाछिपी with all of us....with and in the form of all the creatures say everything ....every object, moving-non moving सकल चराचर सृष्टीरूप से, कालरूप से गुणों को प्रेरित करनेवाले श्रीभगवान ही सबके कारण.... या परमपिता हैं, जो समस्त सृष्टि को प्रेम करते हैं और भगवान की योगमाया शक्ति या जगदंबा मूल प्रकृति के रूपमें सबके लिये सबको माध्यम बनाकर विश्व में महायोग कर रही है.... उसी प्रकार सबके अंदर भगवान के साथ योग साधन कर रही है....और हम समझ रहे हैं कि हम कर्ता हैं।
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कर्ता करैय्या नंद का लाला है....!!!! भगवान ऐसे बालक हैं जो विश्वरूप(हम सब भी उनके खिलौने ही हैं.... अंश भी... जब हम उनकी भक्ति करते हैं।) खिलौने से बड़े चाव से खेलते रहते हैं। भगवान गुणों को उकसा के... प्रभावित करके लीला को आगे बढाते हैं। जब सत्वगुण की वृध्दि होती है तो देवताओं का, ऋषिमुनियों का बल बढ़ता है और सृष्टि में सत्व छा जाता है। तब असुरों का, दैत्योंका संहार होता है। ऐसे ही जब रजस गुण की वृद्धि होती है, तब असुर बलशाली होते हैं.... राजसीक स्वभाव में वृद्धि होकर भोगविलास में प्रवृत्ति बढ़ती है। कर्मों में रुचि बढ़ती है। जब तामस गुण वृद्धि को प्राप्त होता है तब राक्षस, पिशाचों का बल बढ़कर मुसलमान प्रबल होकर सँसार में हिंसा, बलात्कारों का प्रमाण बढ़ता है जैसे इस समय रजस और तामस का पलडा भारी है।
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मनुष्यों के अंदर भी दिन में इन गुणों के प्रभाव से बदलाव आकर वैसे कर्म वो करता है। सत्व की वृद्धि से ज्ञान, भक्ति, सत्संग, साधुओं में श्रध्दा, वैराग्य में वृद्धि होती है.... रजस के प्रभाव से मनुष्य निरंतर कर्म करता है... अच्छे हो या बुरे.... सत्व की प्रधानता से सात्विक-राजसिक कर्म... जैसे सत्पुरुषों की सेवा, देवकार्य, आश्रम की सेवा..... जीवमात्र की सेवा... आदि और तामसिक गुण की प्रधानता से हिंसा(आयएसआयएस की तरह).... क्योंकि हिंसा रजस में भी होती है... जैसे अपने सुख के लिये किसी को दुख पहुँचाना.... हिंसा करना। सात्विक-राजसिक हिंसा में गौरक्षा के लिये मुल्लों/कसाईयों की पिटाई/वध.... देशद्रोहीयों का नाश... देश के दुश्मनों का नाश.... आदि। तामसिकता की प्रधानता में निद्रा/आलस्य/तंद्रा आती है... कुछ भी करने का मन नहीं करता।
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योगी साधक गुणों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देता बल्कि सत्व के आश्रय से भगवान के मंदिरों की, संतों की, जीवमात्र की निष्काम भाव से सेवा करता है.... या सत्संग करता है... या सत्ग्रन्थों का अध्ययन-चिंतन-मनन करता है। गिरीराज की परिक्रमा, विग्रहसेवा, भक्तिगान.... ये सब सत्व-रजस के माध्यम से होता हैं।
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जब विश्व में सत्वगुण की बाढ़ आती है तो लोगों की सत्कार्यों में प्रवृत्ति बढ़ती है.... निष्काम सेवा(अपनी परवाह न कर गौमाता की रक्षा, देश की, जीवमात्र की रक्षा) करने में प्रवृत्ति बढ़ती है। सत्संग में रुचि बढ़ती है। ऐसे ही रजस की प्रबलता में केवल कर्म करने की प्रवृत्ति होगी... अच्छा-बुरा विवेक विचार रहित.... । कामुकता में भी वृध्दि होती है.... भोगविलास में रुचि बढ़ती है।
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सिनेजगत इसी गुण से लेकर है.... इसलिये ऐसे लोग केवल मनोरंजन-भोगविलासी होते है.... नटों की गणना शुद्रों में है... भले ही कुछ(अधिकांश) लोगों का उनमें आकर्षण होता है.... लेकिन ये सब मनुष्यों को आत्मा की विपरीत दिशा में ही ले जाते हैं। नट कभी भक्ति(निरपेक्ष) या ज्ञान... सत्संग को पसँद नहीं करते। अगर वे दान करते भी तो उसमें नाम(प्रसिध्दि) की चाह ही होती है।
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यदि आप अपना उत्थान चाहते हो(आत्मा के लक्ष्य की प्राप्ति) तो इन गुणों के अपने अंदर तथा विश्व में खेल को समझना बहुत जरूरी है। जब रजस प्रबल हो और कर्म की इच्छा हो तो संतों की/जीवमात्र की/संतों के आश्रमों की/मंदिरों की सेवा करो। सत्संग करो। सत्शास्त्रों के अध्ययन से ज्ञानार्जन करो। भगवान की लीलाकथा का वाचन, श्रवण, चिंतन.... भगवान के नाम का जप/किर्तन करो.... गिरीराज की परिक्रमा करो.... मन को भगवान से संबंधित सत्कार्यों में लगाये रखो.... क्योंकि खाली दिमाग शैतानका घर हो सकता है।
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खाली मन में दुर्विचार, वासनाओं की संभावना रहती है। आप या तो आध्यात्मिक पथपर आगे बढने के साधन-कार्य करोगे.... या अच्छे-बुरे कर्म करोगे... या तामसिकता में किया कराया सात्विक कार्य बिगाडोगे। एक मूर्खतापुर्ण क्षण/शब्द/कार्य शतकों के बने बनाये काम/उपलब्धि को खतम कर सकता है.... जैसे गाँधी द्वारा सुभाषबाबु को काँग्रेस के पद से हटने को मजबुर कर नेहरू जैसे ऐय्याश के हाथो देश का/हिंदुओं का/गौमाताओं का विनाश करवाना। ऐसे लोग असुरों के माध्यम बनकर सबका विनाश करते हैं।
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समाज में, मनुष्य में सद्विचार(सत्-असत् विवेक विचार या बुध्दि)ही उसे महाविनाश से बचा सकता है..... इसलिये नित्य निरंतर सावधान रहकर सत्य का पक्ष लो.... असत्य का नहीं। असत्य असुरी है और सत्य भगवान का रूप है। सत्य के साथ सनातन धर्म, स्वयम् भगवान हैं। सत्य में ही परम शांती है।

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