गुरुवार, 21 सितंबर 2017

आज्ञाकारी का अंग ८(१-४)

#daduji

卐 सत्यराम सा 卐
*दादू सुध बुध आत्मा, सतगुरु परसे आइ ।*
*दादू भृंगी कीट ज्यों, देखत ही ह्वै जाइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**आज्ञाकारी का अंग ८** 
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आज्ञाकारी, आज्ञा भंगी-अंग के अनन्तर आज्ञा पालक, आज्ञा पालन आदि का विचार करने को आज्ञाकारी का अंग कर रहे हैं - 

गुरु आज्ञा में शिष्य यूं, ज्यों अदभू१ इक पाय । 
रज्जब सेवक सो सही, सर्वस्व सेवा भाय ॥१॥
१-१५ में आज्ञाकारी के परिचय पूर्वक आज्ञा पालन का बता रहे हैं - जैसे वृक्ष१ निरन्तर पृथ्वी में खड़ा रहता है, वैसे ही शिष्य निरन्तर गुरु सेवा में स्थित रहता है, वही सच्चा सेवक है, जिसका सर्वस्व भावपूर्वक सेवा में आ जाता है । 
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गुरु आज्ञा अँगूरी बँधे, चेले चक्री होय ।
आवे जाय रजा में रज्जब, दूजा नाँहीं कोय ॥२॥ 
जैसे अँगुली के बँधी हुई चक्री, चक्री वाले के इच्छा से ही आती-जाती है, चक्रीधर की इच्छा के बिना गमनागमन का दूसरा हेतु कोई भी नहीं है । वैसे ही सु शिष्य गुरु आज्ञा में बँधे हुये रह कर ही सब व्यवहार करते हैं, कोई अन्य हेतु लेकर नहीं करते । 
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सद्गुरु सूरज शिष सलिल, आज्ञा आवे जाँहिं ।
रज्जब रहतौ इहिं जुगति, सेवक स्वामी माँहिं ॥३॥ 
जैसे सूर्य की किरण से जल पृथ्वी पर आता है और आकाश को जाता है । वैसे ही जो शिष्य सद्गुरु की आज्ञा पालन रूप युक्ति से रहता है अर्थात आज्ञानुसार ही सब व्यवहार करता है वह सेवक स्वामी में ही मिल जाता है ।
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धोम वास बल वायु के, संग समीर सु जाँहिं ।
तैसे रज्जब गुरु शिषों, सदा सु आज्ञा माँहिं ॥४ ॥
जैसे धूआँ और गंध वायु के बल से वायु के साथ जाती हैं । वैसे ही शिष्यगण भी सम्यक् प्रकार सदा गुरु की आज्ञा में रहने के बल से गुरु के साथ ही परब्रह्म में मिल जाते हैं ।
(क्रमशः)

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