रविवार, 29 अक्टूबर 2017

विरह का अंग १०(१३-६)

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*मूये पीड़ पुकारतां, बैद न मिलिया आइ ।*
*दादू थोड़ी बात थी, जे टुक दर्श दिखाइ ॥* 
======================
**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
**विरह का अंग १०** 
.
दशवें कुल का नाग है, दरद सु देहि माँहिं । 
जन रज्जब ताके डसे, मंत्र रु मूली नाँहिं ॥१३॥ 
नागों के दशवे कुल का नाग जिसे डसता है, वह उसके विष से बच नहीं सकता, उसके विष को दूर करने वाला न तो कोई मंत्र है और न कोई बूंटी है । वैसे ही जिसके हृदय में विरह का दर्द है, उसको दूर करने का भी मंत्र तथा बूँटी नहीं है । उसकी व्यथा तो प्रियतम के मिलने से ही मिटती है । 
रज्जब विरह भुवंग१ परि, औषधि हरि दीदार । 
बिन देखे दीरघ दुखी, तन मन नहीं करार२ ॥१४॥ 
विरह रूप सर्प१ के काटने पर, हरि-दर्शन रूप औषधि उसके विष को उतार सकती है । हरि-दर्शन बिना विरही भक्त महान दुखी रहता है, उसके तन और मन में उत्साह पूर्वक कार्य करने की शक्ति२ नहीं रहती । 
भलका१ लागा भाव का, सेवक हुआ सु मार । 
रज्जब तलफै तब लगे, मिले न मारन हार ॥१५॥ 
जब से भगवद्-विरह भावना रूप भाला१ मन के लगा है, तब से ही मन भगवत् प्राप्ति में बाधक कामादि शत्रुओं को अच्छी प्रकार मारकर भगवान् का सु सेवक हो गया है । अब यह तब तक तड़फता रहेगा जब तक भाला मारने वाले भगवान् दर्शन न देंगे । 
ज्यों विरहनी वर बीछुटे, बिहर१ गई तहिं काल । 
त्यों रज्जब तुम कारने, विपति माँहिं बेहाल ॥१६॥ 
जैसै अपने स्वामी के बिछुड़ने पर वियोगिनी का हृदय तत्काल विदीर्ण१ होने लगता है, वैसे ही हे प्रभो ! हम विरहजनों में विरह-विपत्ति आ पड़ी है, हम आपके दर्शनार्थ अति व्याकुल हैं ।
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें