सोमवार, 2 अक्टूबर 2017

= गुरु-उपदेश-ज्ञानाष्टक(ग्रन्थ १७- दो.-८/गी.-७) =

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🙏 *श्री दादूदयालवे नमः ॥* 🙏
🌷 *#श्रीसुन्दर०ग्रंथावली* 🌷
रचियता ~ *स्वामी सुन्दरदासजी महाराज*
संपादक, संशोधक तथा अनुवादक ~ स्वामी द्वारिकादासशास्त्री
साभार ~ श्री दादूदयालु शोध संस्थान,
अध्यक्ष ~ गुरुवर्य महमंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमारामजी महाराज
https://www.facebook.com/DADUVANI
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*= गुरु-उपदेश-ज्ञानाष्टक(ग्रन्थ १७) =*
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*= दोहा =*
*सुन्दर सद्गुरु यौं कहै, भ्रम तें भासै और ।*
*सींप माँहिं रूपो द्रसै, सर्प रज्जु की ठौर ॥८॥*
सद्गुरु ने बता दिया कि अज्ञान के कारण हमें यह जगत् उसी तरह भ्रम से अयथार्थ रूप में भासता है, जैसे लोग अन्धकार के कारण रस्सी को सर्प या चमक के कारण सीप(शुक्ति) को चांदी समझ लेते हैं ॥८॥
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*= गीतक =*
*रज्जु१ माँहिं जैसे सर्प भासै,*
*सीप मैं रूपौ यथा ।*
*मृग तृषि्नका जल बुद्धि देखै,*
*विश्व मिथ्या है तथा ॥*
*जिनि लह्यौ ब्रह्म अखण्ड पद,*
*अद्वैत सबही ठांम है ।*
*दादूदयाल प्रसिद्ध सद्गुरु,*
*ताहि मोर प्रनांम हैं ॥७॥*
(१. ‘रज्जु’ को ‘रजु’ ऐसा उच्चारण करना चाहिए जिससे छन्द का भंग न होने पावै ।)
अन्धकार के कारण जैसे रस्सी में सर्प का भ्रम होता है, चमक के कारण सीप को चाँदी समझ लिया जाता है या ....
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रेगिस्तान में घूमने वाला हरिण जैसे दूर से चमकती बालू को जल समझ कर उसकी तरफ दौड़ता है, ठीक उसी प्रकार यह सारा जगत् भी मिथ्या है, भ्रम है, अयथार्थ है । इसको हम अज्ञान के कारण नित्य सुख का आश्रय मान बैठे हैं, पर है वस्तुतः यह अनित्य, अनात्म एवं दुःखमय ।
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जो ज्ञानी इसके विपरीत नित्य शाश्वत ब्रह्म का साक्षात्कार कर एकमात्र उसी को इस संसार के कण-कण में व्याप्त मानते हैं....
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उन ज्ञानियों में श्रेष्ठ श्री दादूदयाल जी महाराज को मेरा अनन्तश: प्रणाम है ॥७॥
(क्रमशः)

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