#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*सकल शिरोमणि सब सुख दाता, दुर्लभ इहि संसार ।*
*दादू हंस रहैं सुख सागर, आये पर उपकार ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**आज्ञाकारी का अंग ८**
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गुरु आज्ञा दुनिया तजहु, आज्ञा दर्शन त्याग ।
रज्जब आज्ञा ऐन यहु, पाखंड प्रपंच से भाग ॥३२ ॥
गुरु आज्ञानुसार सांसारिक राग को त्यागो, जोगी, जंगम, सेवडे, सन्यासी, बौद्ध और शेखों के भेष तथा मताग्रह को त्यागो । पाखंड प्रपंच से दूर भागो, यही गुरु की यथार्थ आज्ञा है ।
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शिष्य सदा सत शब्द मधि१, गुरु थिर गोविंद माँहिं ।
उभय उमर ठाहर व्यतीत, तब सँचर२ कछु नाँहिं ॥३३॥
३३ में गुरु-शिष्य की निर्दोषता दिखा रहे हैं - शिष्य सदा गुरु के यथार्थत शब्दों में१ मन लगाये रहता है और गुरु गोविन्द के चिन्तन में मन स्थिर रखता है । इस प्रकार दोनों की आयु उक्त “शब्द मनन” और “गोविन्द भजन” रूप दोनों स्थानों में ही व्यतीत होती है, तब उनमें कोई दोष२ नहीं रहता वे निर्दोष ही हैं ।
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शिष सोई सत सीख में, गुरु सोई ज्ञान गरक्क१ ।
मन वच कर्म रज्जब कहै, युगल२ जु पावैं जक्क३ ॥३४॥
३४ में योग्य गुरु-शिष्य का परिचय दे रहे हैं - जो यथार्थ शिक्षानुसार चलता है वही शिष्य है और जो ज्ञान में निमग्न१ रहता है वही गुरु है । हम मन, वचन और कर्म से यथार्थ ही कहते हैं, उक्त प्रकार के गुरु-शिष्य दोनों२ ही शांति३ को प्राप्त होते हैं ।
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित आज्ञाकारी का अंग ८ समाप्त ॥सा. ३४५॥
(क्रमशः)

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