सोमवार, 2 अक्टूबर 2017

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卐 सत्यराम सा 卐
*यहु सब माया मृग जल, झूठा झिलमिल होइ ।*
*दादू चिलका देखि कर, सत कर जाना सोइ ॥* 
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साभार ~ oshoganga.blogspot.com 
*ब्रह्मा से लेकर खम्भ तक, पत्थर से लेकर परमात्मा तक सब उपाधियां झूठी हैं, इसलिए एक स्वरूप में रहने वाले पूर्ण आत्मा का ही सर्वत्र दर्शन करना।*
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सब पद झूठे हैं, सब प्रतिष्ठायें झूठी हैं, सब बनावटी हैं। चाहे सड़क के किनारे पड़ा हुआ पत्थर हो,और चाहे मनुष्य द्वारा आकाश में बिठाया गया परमात्मा हो; सब व्यर्थ है। मनुष्य उस एक का ही सदैव ध्यान रखे जो झूठा नहीं है, उस एक साक्षी में ही लीन रहे। गरीब हो जाये, तब भी लीनता साक्षित्व में हो; अमीर हो जाएं, तब भी लीनता साक्षित्व में ही हो। तब गरीबी-अमीरी कोई अंतर न ला सकेगी, क्योंकि भीतर एक ही धारा साक्षित्व की बहती रहेगी।
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सब उपाधियां व्यर्थ हैं। जो बाहर से उपलब्ध होता है, वह सब व्यर्थ है।और भीतर से जो उपलब्ध होता है, वही सार्थक है।और भीतर से साक्षी चेतना के अतिरिक्त और कुछ भी उपलब्ध नहीं होता। प्रत्येक स्थिति में, इस भीतर की आत्मा का ही मनुष्य दर्शन करता रहे। *स्वयं ही ब्रह्मा, स्वयं विष्णु, स्वयं इंद्र, स्वयं शिव, स्वयं जगत और स्वयं ही यह सब कुछ है; स्वयं से भिन्न कुछ भी नहीं है।*
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मनुष्य के द्वारा इस चैतन्य को जान लेते ही, इस साक्षी को जान लेते ही; मनुष्य के लिए फिर दूसरा मिट जाता है। फिर कोई दूसरा नहीं है; फिर मैं ही हूं, सब मेरा ही फैलाव है। क्योंकि मनुष्य जैसे ही अपनी चेतना को जान लेता है, वो ये भी जान लेता है कि दूसरे की चेतना भी भिन्न नहीं है।
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जब तक मनुष्य स्वयं को देह मानता है, तब तक अलगाव बना ही रहता है; क्योंकि प्रत्येक का शरीर अलग-2 है। जैसे एक मिट्टी का दीपक जल रहा है, एक चांदी का दीपक जल रहा है, एक सोने का दीपक जल रहा है; तीनो दीपक की देह पर ध्यान दें, तब देह तो अलग-2 हैं। लेकिन तीनो में से एक भी यदि ज्योति को जान ले, कि वह जो ज्योति जल रही है; वह ही मैं हूं, उसके लिए देह व्यर्थ हो गई। उसके लिए सारे जगत के दीपक उसके साथ एक हो गए; अब जहां भी ज्योति है, वहीं वह दीपक है।

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