सोमवार, 2 अक्टूबर 2017

= साँच का अंग =(१३/१५७-५९)

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卐 सत्यराम सा 卐 
*श्री दादू अनुभव वाणी* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*साँच का अंग १३* 
*सज्जन दूर्जन*
बिच के शिर खाली करैं, पूरे सुख सँतोष ।
दादू सुध१ बुध२ आतमा, ताहि न दीजे दोष ॥१५७॥
१५७ - १५९ में सज्जन, दूर्जन - सँपर्क से लाभ हानि दिखा रहे हैं - जिनको न पूर्ण शास्त्र - ज्ञान ही है और न आत्मनिष्ठा ही प्राप्त है, ऐसे बीच के लोग विवाद द्वारा व्यर्थ ही मस्तिक खाली करते हैं । जो अपनी साधना में पूर्ण हैं, उन सज्जनों के सँपर्क से तो विचार द्वारा सँतोष और आनन्द ही प्राप्त होता है । जो शुद्ध१ बुद्धि२ सरल - स्वभाव के जीवात्मा हैं उन्हें तो कोई दोष नहीं देना चाहिये । वे तो सँतों के बताये हुये साधन मार्ग से चलकर भगवत् तत्व को प्राप्त कर लेते हैं ।
सुध बुध सौं सुख पाइये, कै साधु विवेकी होइ ।
दादू ये बिच के बुरे, दाधे१ रीगे२ सोइ ॥१५८॥
शुद्ध बुद्धि सरल स्वभाव के साधक कथनानुसार साधन कर लेते हैं, उनकी साधन - सिद्धि को देख कर आनन्द ही होता है वो विवेकी सँतों के संग से आनन्द होता है किन्तु विवाद में तत्पर बीच के लोग अच्छे नहीं होते, वे तो त्रिताप में जलते१ हुये सँसार में ही घूमते२ रहते हैं ।
जनि कोई हरिनाम में, हमको हाना बाहि ।
तातैं तुम तैं डरत हूं, क्यों ही टले बलाइ ॥१५९॥
वितँडा वाद करने वालों को कहते हैं - किसी भी प्रकार से हमारे हरिनाम - चिन्तन में विघ्न नहीं हो, इसीलिये हम तुमसे डरते हैं । क्योंकि हरिनाम चिन्तन में विघ्न को ही हम बड़ी विपत्ति मानते हैं । अत: यह विपत्ति किसी भी प्रकार हम से दूर रहे, ऐसा ही हम चाहते हैं और वैसा ही व्यवहार करते रहते हैं । 
(क्रमशः)

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