गुरुवार, 19 अक्टूबर 2017

= ११५ =

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू पख काहू के ना मिलैं, निष्कामी निर्पख साध ।*
*एक भरोसे राम के, खेलैं खेल अगाध ॥* 
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साभार ~ स्वामी सौमित्राचार्य
“प्रपत्ति” ~ ‘नमामि भक्तमाल को’
श्री लक्ष्मणभट्ट जी
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श्री लक्ष्मणभट्ट जी श्रीरामानुज संप्रदाय में दीक्षित थे और इन्होंने संप्रदाय की पद्धति के अनुसार भगवान की सेवा-पूजा का अनुसरण किया. इनकी संतों के चरणों में अपार निष्ठा थी. ये परम संतोषी और शीलवान थे. इनमें नाममात्र का भी स्वार्थ नहीं था जिसके कारण भगवद्भक्ति बहुत दृढ़ हो गयी थी.
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इन्होंने श्रीमद्भागवत की कथा कहकर सत् और असत् का उसी प्रकार विवेचन किया जैसे हँस नीर और क्षीर का करता है. एक बार इन्होंने एक भक्त शिष्य के यहाँ श्रीमद्भागवत की कथा कही जिसमें प्रचुर भेंट आयी पर इन्होंने वह सब संत-सेवा के लिये समर्पित कर दी. एक बार राजा ने इनको श्रीमद्भागवत कथा के लिये आमंत्रित किया. उसी तिथियों में किसी संत ने भी आमंत्रित किया. इन्होंने राजा का निमंत्रण अस्वीकार करते हुए संत के यहाँ कथा कही.
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यदि भक्ति को दृढ़ करना है तो स्वार्थ को छोड़ते जाना होगा. यह बात कहनी तो आसान है पर करनी मुश्किल है. जैसे-जैसे लक्ष्य भगवत्प्राप्ति ही होता जाता है मतलब यह बात समझ में आने लगती है कि इस जीवन का एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है तब हर कार्य में सेवा भाव आने लगता है और स्वार्थ छूटता जाता है.
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सत् एकमात्र भगवान की शरणागति ही है और श्रीमद्भागवत में इसी का उपदेश हो रहा है. आबद्ध जीवों में उसे समझने की सामर्थ्य नहीं होती है. पूज्य आचार्य चरण ही कृपा करके जीवों को यह बात समझाते हैं. आबद्ध जीवों ने भी शरणागति ले रखी है पर भगवान की नहीं, संसार की. सब एक दूसरे से आनन्द और अभय पाने की आशा रखे बैठे हैं. 
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भगवान के वचनों पर भरोसा नहीं है बल्कि जो जीव खुद काल के आधीन है उसकी बात पर भरोसा करते हैं कि वह साथ निभाएगा, मुसीबत में काम आयेगा, ऊँचाइयों तक ले जायेगा. यही मूर्खता है, यही असत् है. संतों की कृपा से ही सत् और असत् का भेद समझ में आता है एवं सत् को ग्रहण करने की समझ आती है.
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किसी भी कार्य के पीछे तीन बातें मुख्य होती हैं – अभाव, प्रभाव और भाव. मतलब कोई भी कार्य किसी कमी(अभाव) को मिटाने के लिये किया जाता है अथवा अपनी योग्यता का परिचय देने के लिये(प्रभाव) या भाव(प्रेम) में. प्रभु की कथा तो प्रेम से ही होनी चाहिए. अभाव को मिटाने के लिये कथा हो तो ऐसे कि जिनके हृदय में भक्ति का अभाव है वहाँ भक्ति आ जाए और प्रभाव दिखाया जाए तो भगवत्कृपा का.
“स्वामी सौमित्राचार्य”

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