卐 सत्यराम सा 卐
*ना हम छाड़ैं ना गहैं, ऐसा ज्ञान विचार ।*
*मध्य भाव सेवैं सदा, दादू मुक्ति द्वार ॥*
*सहज शून्य मन राखिये, इन दोन्यों के मांहि ।*
*लै समाधि रस पीजिये, तहाँ काल भय नांहि ॥*
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साभार ~ Oshoganga
मय्यनंतमहांभोधौ विश्वपोत इतस्ततः।
भ्रमति स्वांतवातेन न ममास्त्यसहिष्णुता॥
जनक ने कहा 'मुझ अंतहीन महासमुद्र में, विश्वरूपी नाव अपनी ही प्रकृत वायु से इधर-उधर डोलती है। मुझे असहिष्णुता नहीं है।'
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श्लोक इतना सरल लगता हैं, परन्तु बड़ा गहन है, इस श्लोक का यह अर्थ हुआ कि दुख आए चाहे सुख, दोनों ही प्रकृति से उत्पन्न हो रहे हैं। मेरे चुनाव की सुविधा कहां है, मुझसे पूछता कौन है, जैसे समुद्र में लहरें उठ रही हैं, छोटी लहरें, बड़ी लहरें, अच्छी लहरें, बुरी लहरें; सुंदर, कुरूप लहरें, यह समुद्र का स्वभाव है कि ये लहरें उठती हैं। ऐसे ही मुझ में लहरें उठती हैं, सुख की, दुख की; प्रेम की, घृणा की; क्रोध की, करुणा की। ये स्वभाव से ही उठती हैं और इधर-उधर डोलती हैं। इसमें मैंने चुनाव नहीं किया है, चुनाव छोड़ दिया है। और जब से चुनाव छोड़ा तभी से असहिष्णुता भी चली गई। करने को ही कुछ नहीं है तो असहिष्णुता कैसे हो?
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मयि अनंत महाम्भोधौ विश्वपोत इतस्तत:।
'मुझ अंतहीन महासमुद्र में विश्वरूपी नाव अपनी ही प्रकृत वायु से इधर-उधर डोलती है।'
'भ्रमति स्वान्तवातेन न मम अस्ति असहिष्णुता'
अब मैं जान गया कि यह स्वभाव ही है। कोई मेरे विपरीत मेरे पीछे नहीं पड़ा है। कोई मेरा शत्रु नहीं है जो मुझे अशांत कर रहा है। ये मेरे ही स्वभाव की तरंगें हैं। यह मैं ही हूं। यह मेरे होने का ढंग है कि कभी इसमें लहरें उठती हैं, कभी लहरें नहीं उठतीं; कभी सब शांत हो जाता है, कभी सब अशांत हो जाता है। यह मैं ही हूं और यह मेरा स्वभाव है।
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जनक कहते हैं, अब मैं चुनाव नहीं करना चाहता। मैं यह नहीं चाहता कि नाव न डोले, क्योंकि वह मेरा आकर्षण कि नाव न डोले, मेरे मन का तनाव बनेगा। जब भी हमने कुछ चाहा, जब भी हमने कुछ चाह की, तनाव पैदा हुआ। जब भी हमने स्वीकार किया, जो है, तभी तनाव खो गया। अगर हमने चाहा कि अज्ञान हटे और ज्ञान आए, उपद्रव शुरू हुआ। अगर हमने चाहा कि वासना मिटे, निर्वासना आए, पडे हम झंझट में, अगर हमने चाहा संसार से मुक्ति हो, मोक्ष बने मेरा साम्राज्य, अब हमने एक तरह की परेशानी मोल ली, जो हमे चैन न देगी।
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जनक बड़ी अदभुत बात कह रहे हैं। जनक कह रहे हैं : संसार और मोक्ष दोनों ही मुझमें उठती तरंगें हैं। अब मैं चुनाव नहीं करता; जो तरंग उठती है, देखता रहता हूं। यह भी मेरी है। यह भी स्वाभाविक है। देखा इस स्वीकार भाव को, फिर कैसी असहिष्णुता? फिर तो सहिष्णुता बिलकुल ही नैसर्गिक होगी। जो हो रहा है, हो रहा है। बड़ी कठिन है यह बात स्वीकार करनी, क्योंकि अहंकार के बड़े विपरीत है।
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कभी क्रोध बन जाती, कभी करुणा बन जाती; कभी काम, कभी ब्रह्मचर्य; कभी लोभ, कभी दान, इधर-उधर, इतस्तत: ! मुझे लेकिन असहिष्णुता नहीं है। मैं इससे अन्यथा चाहता नहीं। इसलिए मुझे कुछ करने को नहीं बचा है। गया कृत्य। अब तो मैं बैठ कर देखता हूं कि लहर कैसी उठती है। भ्रमति स्वांतवातेन। भटक रही अपनी ही हवा से। न कहीं जाना, नहीं मुझे कुछ होना। कोई आदर्श नहीं है, कोई लक्ष्य नहीं है। अब तो मैं बैठ गया। अब तो मैं मौज से देखता हूं। सब असहिष्णुता खो गई।

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