#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*दादू हम दुखिया दीदार के, तूं दिल थैं दूरि न होइ ।*
*भावै हमको जाल दे, होना है सो होइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**विरह का अंग १०**
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दृग१ द्रुम२ डारी ऐन३, चित चुल्है पावक जरै ।
परी अग्नि उत४ घैन५, तो रज्जब रस६ इत७ झरै ॥२१॥
वृक्ष२ की गीली डाली चूल्हे में लगी हो और चूल्हे में अग्नि बहुत५ हो तो चुल्हे४ से बाहर जो लकड़ी का मुख७ है उससे पानी६ निकलता है, वैसे ही चित्त में सच्चा३ विरहाग्नि हो तो नेत्रों१ से अश्रु निकलते रहते हैं ।
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रज्जब वह्नी१ विरह की, गुण गण अवटै३ वीर४ ।
काया काठ कसेरे२ जरहिं, सु नैनहुं निकसे नीर ॥२२॥
चुल्हे पर चढे हुये बर्तन में दालादि के दाने अग्नि१ के द्वारा उबलते२ हैं, जब अग्नि ठीक नहीं जलता है तब लकङियों को चिमटा से छेड़ने३ से ठीक जलने लगता है और लकड़ी गीली होने से चूल्हे से बाहर वाले मुख में पानी निकलता है, वैसे ही हे भाई४ ! विरह रूप अग्नि कामादि गुणों के समूह को तपाकर शक्ति -हीन करता है । विरहीजनों की कथा सुनना वा भगवान् का स्मरण करना ही विरहाग्नि को छेड़ना है, उस से शरीर जलता है अर्थात क्षीण होता है और नेत्रों से अश्रु गिरते रहते हैं ।
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रोज१ रेश्मी जेवङों२ हुं, तन मन बाँधे घोलि३ ।
जन रज्जब जो यूं जड़े, सु कहां जाहिं कहु खोलि ॥२३॥
विरहीजनों के तन मन विरह-व्यथा के रुदन रूप रेशमी१ रस्सों२ से कसकर३ बांधे हुये हैं, कहिये फिर जो ऐसे अच्छी प्रकार जकड़े हुये हैं, वे भगवान् के बिना कहां जाकर अपने रुदन रूप बन्धन को खोल सकते हैं अर्थात भगवन् के दर्शन से ही उनका रोना बन्द होता है ।
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रज्जब चाढे दुर्ग दुख, बाँधे सांकल शोच ।
हरियाली ताले जड़े, क्यों निकसे मन मोच ॥२४॥
भगवद् विरहजनों को विरह ने दुख रूप किले में चढाकर शोक रूप जंजीर से बांध रक्खा है और हरि दर्शन का अभाव रूप ताला लगा रखा है, उक्त ताले को खोलने की ताली हरि के पास है, वे अपनी कृपा रूप ताली से खोल कर दर्शन न दे तब तक मन दुख-दुर्ग से निकलकर शोक-सांकल से कैसे मुक्त हो सकता है ?
(क्रमशः)

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