शुक्रवार, 13 अक्टूबर 2017

गुरु संयोग वियोग माहात्म्य का अंग ९(३३-३६)

#daduji


卐 सत्यराम सा 卐
*सतगुरु पसु मानस करै, मानस थैं सिध सोइ ।*
*दादू सिध थैं देवता, देव निरंजन होइ ॥*
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**श्री रज्जबवाणी**
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi
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**श्री रज्जबवाणी गुरु संयोग वियोग माहात्म्य का अंग ९**
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जैसे राछ१ अकज४ सब, उस्तादहुं२ बिन जेम३ ।
त्यों रज्जब गुरु बिनगिरा, मनसा वाचा नेम५ ॥३३॥
जैसे जो३ भी कारीगरों२ के औजार१ हैं, वे कारीगरों के बिना सभी बेकार४ हैं, हम मन वचन से नियम५ करके रहते हैं, वैसे ही गुरु बिना बाणी ब्रह्म को नहीं दिखा सकती ।
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रज्जब पागी१ बिना न पग कढैं, देखो धर गिरि नीर ।
शब्द खोज तत पंच पर, सो क्यों निकसे बिन पीर२ ॥३४॥
देखो, पृथ्वी, पर्वत और जल में कहीं भी खोजी१ बिना मानव के खोज भी नहीं निकलते, फिर शब्द ब्रह्म का खोज तो पंच तत्त्व रचित संसार के ऊपर जाकर निकाला जाता है, वह बिना सिद्ध२ सद्गुरु के कैसे निकलेगा ? 
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नाम शब्द निज नाव है, समद्र रूप संसार ।
रज्जब गुरु खेवट बिना, चढे न पहुँचे पार ॥३५ ॥
परमात्मा के नाम तथा ज्ञानमय शब्द निजी नौका है, संसार ही समुद्र है, जैसे नौका पर चढ़ तो सकता है किन्तु पर पार तो केवट के बिना नहीं पहुँच सकता, वैसे ही नाम उच्चारण करना और ज्ञान की बातें याद कर लेना, यही नाम तथा शब्द रूप नौका में चढ़ना है किन्तु गुरु के बिना संसार से पार कभी भी नहीं हो सकता । 
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परख बिना नाणा१ न कुछ, वैद्य बिना औषद्ध२ ।
त्यों रज्जब सद्गुरु विमुख, शब्द मिले जिव३ रद्द४ ॥३६॥
परीक्षा के बिना रत्न१ वा सिक्के१ कुछ नहीं, वैद्य बिना औषधि२ कुछ नहीं, वैसे ही सद्गुरु से विमुख प्राणी३ को शब्द मिलने पर भी बेकार४ है, कारण - गुरु बिना केवल शब्द से परम पद प्राप्त नहीं होता ।
(क्रमशः)

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