शुक्रवार, 27 अक्टूबर 2017

विरह का अंग १०(५-८)

#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*विरह अग्नि तन जालिये, ज्ञान अग्नि दौं लाइ ।*
*दादू नखशिख परजलै, तब राम बुझावै आइ ॥* 
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**श्री रज्जबवाणी** 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
साभार विद्युत् संस्करण ~ Mahant Ramgopal Das Tapasvi 
**विरह का अंग १०** 
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विरहनि बिहरे१ रैन दिन, बिन देखे दीदार । 
जन रज्जब जलती रहै, जाग्या विरह अपार ॥५॥
विरहनी प्रियतम के दर्शन बिना चैन न पड़ने से रात-दिन इधर-उधर विचरती१ है । अपार विरह उत्पन्न हो जाने से विरह-व्यथा से जलती रहती है । 
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रज्जब कहिये कौन सौं, इस विरहा की बात । 
मानहुँ रावण की चिता, अह निशि नहीं बुझात ॥६॥ 
इस विरहाग्नि की बात किससे कहें, यह तो मानो रावण की चिता ही बन गई है, दिन-रात बुझती ही नहीं । 
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विरहा पावक उर वसे, नख शिख जारे देह ।
रज्जब ऊपर रहम१ कर, वर्षहु मोहन मेह२ ॥७॥ 
यह विरह रूप अग्नि हृदय में बसता है और नख से शिखा तक शरीर को जला रहा है । हे विरह-विमोहन परमात्मा रूप बादल२ मुझ पर अनुग्रह१ करके दर्शन रूप वर्षा कर इसे बुझाइये । 
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विरहनी वसुधा की अगनि, ब्रह्म व्योम क्यों जाहि । 
रज्जब वर वर्षा बिना, उर धर क्यों सु सिराहि ॥८॥ 
जैसे पृथ्वी के वन का अग्नि आकाश में जाकर जल से नहीं बुझता और न वर्षा बिना बुझता है । वैसे ही विरहनि के हृदय का अग्नि ब्रह्म के पास नहीं जा सकता और न किसी अन्य से बुझता है, वह ब्रह्मरूप स्वरूप का हृदय में दर्शन होने से ही बुझता है ।
(क्रमशः)

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