卐 सत्यराम सा 卐
*मन निर्मल थिर होत है, राम नाम आनंद ।*
*दादू दर्शन पाइये, पूरण परमानन्द ॥*
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साभार ~ स्वामी सौमित्राचार्य
"प्रपत्ति"
‘बिछुरे ससि-रबि मन-नैननितें,
पावत दुःख बहुतेरो,
भ्रमत श्रमित निसि-दिवस गगन महं,
तहँ रिपु राहु बड़ेरो’
(यह सूर्य और चन्द्रमा जबसे भगवान के नेत्र और मन से अलग हुए तभी से बड़ा दुःख भोग रहे हैं. रात-दिन आकाश में चक्कर लगाते बिताने पड़ते हैं, वहाँ भी बलवान शत्रु राहु पीछा किए रहता है. ~ विनयपत्रिका)
चन्द्रमा प्रभु के मन से अलग होकर भटक रहा है, थक रहा है, ग्रसा जा रहा है... और ऐसे ही हमारा मन भी प्रभु से अलग होकर भटक रहा है, अटक रहा है, थक रहा है और ग्रसा जा रहा है..
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चन्द्रमा भी पूर्ण होने की यात्रा कर रहा है.. तो यह मन भी पूर्ण होने की कोशिश कर रहा है.. मन अनेक मनोरथों को लिये बैठा है जिनकी पूर्ति के लिये निरन्तर प्रयास रत है.. जैसे चन्द्रमा धीमे-धीमे पूरा होता है, वैसे ही ये मन भी कभी-कभी पूरा होता है(कोई इच्छा पूरी होती है).. पर चन्द्रमा हमेशा पूर्ण नहीं रहता है और जब ग्रसा जाता है तो भी इसी पूर्णता की ही अवस्था में.. ऐसे ही ये मन जादा देर तक पूरा नहीं रहता है और जहाँ कोई इच्छा पूर्ण हुई उसी समय दूसरी ‘अपूर्ण’ इच्छाओं द्वारा ग्रसा जाता है(ध्यान दो, राहु भी अपूर्ण है जो पूर्ण चन्द्र को ग्रसता है)..
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ये मन तभी पूरा हो सकता है(सारे मनोरथ भी तभी पूरे हो सकते हैं) जब यह प्रभु से जुड़ जाए.. जब ‘रामचन्द्र’ और ‘कृष्णचन्द्र’ नामों को सुनते हैं तो लगता है कि प्रभु पुकार रहे हैं कि हे मेरे बिछड़े ‘चन्द्र’ मेरे पास आ जाओ..
ये मन रूपी चन्द्र प्रभु राम से जुड़ जाए.. ये मन रूपी 'चन्द्र' प्रभु के नाम से जुड़ जाए..तब ही वास्तविक ‘पूर्णिमा’ होगी.. जब न ग्रहण होगा और न अमावस..
"स्वामी सौमित्राचार्य"

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