#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
*आत्मराम विचार कर, घट घट देव दयाल ।*
*दादू सब संतोंषिये, सब जीवों प्रतिपाल ॥*
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साभार ~ स्वामी सौमित्राचार्य
“प्रपत्ति”
‘नमामि भक्तमाल को’
**स्वामी श्रीकृष्णदास जी पयहारी**
महान सिद्धसंत पयहारी श्रीकृष्णदास जी महाराज जयपुर में श्रीगलताजी की गद्दी पर विराजते थे. एक बार ये अपनी गुफा में थे कि तभी गुफा के द्वार पर एक सिंह आ गया. इन्होंने विचार किया कि आज तो अतिथि भगवान आये हैं तो इनकी सेवा करनी चाहिए. इन्होंने अपनी जाँघ काटकर मांस सामने रख दिया और बोले कि प्रभु भोजन कीजिये.
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धर्म में इनकी सच्ची निष्ठा देखकर प्रभु श्रीराम जी से नहीं रहा गया और वो प्रकट हो गए. प्रभु का दर्शन होते ही जाँघ भी ठीक हो गयी. महर्षि दधिचिजी के बाद इन्होंने कलियुग में आकर दान, त्याग और अतिथि सेवा का सर्वोच्च उदाहरण प्रस्तुत किया. आज जहाँ लोग अतिथि को अन्न भी देने में कष्ट का अनुभव करते हैं वहाँ अपने शरीर का दान कौन कर सकता है !
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धर्म की महिमा बहुत बड़ी है. साथ ही उसका पालन भी बहुत कठिन है. उसका पालन वही कर सकता है जो हर जगह प्रभु राम का दर्शन करता हो. जिसे प्रभु राम के चरणों में अनन्य प्रेम एवं विश्वास हो. संकोच तो उसी के मन में आएगा जिसे प्रभु की भक्तवत्सलता पर संदेह हो. जैसे किसी शिष्य से कोई गलती हो गयी तो वह बहुत डर गया कि अब गुरूजी दंड देंगे. जब गुरूजी को पता चला तो उन्होंने सभी शिष्यों को बुलाया. इससे पूछा कि तुम्हें क्या दंड दिया जाए ? इसने डरते हुए कहा कि गुरूजी क्षमा कर दिया जाए. पास में एक शिष्य मुस्कुरा रहा था. गुरूजी ने उससे पूछा कि तुम्हें क्या दंड मिले. उसने कहा जो भी आप देना चाहें. गुरूजी ने कहा कि इसे मुझपर विश्वास है इसलिए ऐसा बोल रहा है.
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शिष्य को विश्वास था कि गुरूजी उसके अपने हैं और उसका कल्याण ही चाहते हैं इससे जो भी करेंगे उससे उसका भला ही होगा. यही विश्वास उसे शरणागत और अभय रखता था. अगर वास्तव में हम भगवान को अपना मानेंगे तो यह विश्वास होगा कि उनकी बात मानने से कुछ बुरा हो ही नहीं सकता बल्कि उससे कल्याण ही होगा. भगवान की आज्ञा शास्त्रों में है. उसका पालन करना तभी तक कठिन लगता है जब तक प्रभु में प्रीति नहीं है. प्रभु में प्रेम होते ही धर्म का पालन करने के लिये अद्भुत साहस अपने आप आ जाता है.
“स्वामी सौमित्राचार्य”

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